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दानशासनम्
कहते हैं, एवं अभयदानसे सुगति व सुखस्थान मोक्षकी भी प्राप्ति होती है। यह अभयदान यशस्कीर्ति के लिए कुलगृह है। एवं संपूर्ण जीवों के लिए सुखाश्रय स्थान है ॥ २०६॥
शश्वत्पुण्यस्रवंतीजननकुलगिरिः कर्मभूमीधवजं । चैतोवैकल्यनाशं रिपुभयहरणं सर्वशास्त्रार्थबोधं ॥ अज्ञानं हंति कोपं शमयति विनयं संयम संविधत्ते ।
शांति कांति विवेकं सततमरुजतां सोऽभयाख्यं सुदान ।। अर्थ-निर्दोष अभयदान पुण्यनदी को उत्पन्न करने के लिए कुलाचलके समान है । कर्मरूपी पर्वतको तोडने के लिए वज्रके समान है । इस से चित्तकी विकलता दूर होती है । शत्रुभय दूर होता है । समस्त शास्त्रों का अर्थज्ञान होता है । अज्ञान को यह नाश करता है क्रोधको उपशम करता है, विनय व संयम को उत्पन्न करता है, शांति विवेक व निरोगता सब कुछ इस अभयदान के फलसे उत्पन्न होते हैं ॥ २०७ ॥
उन्मत्तरक्षाधिपनिर्वृतीव नश्येत्फलं सर्वमघं बहु स्यात् ॥
वृत्तं विमुक्ताभयदानिना यहानत्रयं नेष्टफलानि दत्ते २०८ अर्थ-जिस प्रकार सस्योंकी वृद्धिका उन्मत्तस्वामी रक्षा नहीं करें तो उनके सब फल नष्ट होते हैं उसी प्रकार आहार, औषधि व शास्त्रदानसे पुण्यवृक्षको बढानेपर भी यदि अभयदानसे उसकी रक्षा नहीं करें तो वह निष्फल है, उससे पापकी वृद्धि होती है ॥ २०८॥
धर्मोपकारिभूपेन गृहीतं यत्समं धनं ॥
मया धर्माय तत्सर्व स्मरेदत्तं भवेत्कृती ॥ २०९ ॥ अर्थ-धर्मोपकार करनेवाले राजाके द्वारा गृहीत धनको अपव्यय १ धर्मापकारिभूपेन यावद्रव्यं सामाहृतं ॥
प्रचिंतयेन्मया दत्तं तत्सर्व धर्महेतवे ।।