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चतुर्विधदाननिरूपण
येषां संति त एव सौख्यमुभयं तचैहिकामुत्रिकं । . पंचैतानि न येषु ते भुवि पुरो दीना भवेयुधुवम् ॥२०॥
अर्थ--जो विद्या फलप्रद है या जिससे विद्वान् लोग भाग्यशाली बनते हैं उसी विद्यामें आसक्ति, लीनता, पठन पाठन, श्रुति व चिंतन . करना उचित है अर्थात् स्वपरहित करनेवाली विद्यामें मनुष्यको आसक्त होना चाहिये, उसीमें लीन होना चाहिये उसी विद्याका रातदिन पठन पाठन करते रहना चाहिये और उसीका मनन करना चाहिये । जो इस प्रकार करते हैं उनको इहलोक-परलोक संबंधी सुख मिलते हैं। ये पांच बातें जिनमें नही हैं उनको कोई सुख नहीं मिलता है प्रत्युत वे आगे दरिद्री होते हैं ॥ २०४॥
स्थाने यैदलवानिभैः स्वविषयैःपूर्णपैर्दुर्गमै-1 स्सिधुग्रामवनस्सखेव वरणैःकुड्यैर्हितारक्षकैः ॥ द्वास्थैः प्राहरिकैद्ययागमकीपैश्च ते रक्षितं ।
यत्तद्र्व्यमिवातिकंटकयुतं पुण्यं महीवावतात् ॥२०५॥ अर्थ-जिस प्रकार राजा अपने खजाने व राज्य जो बहुत आपत्ति पूर्ण है उनके रक्षाकेलिये अनेक प्रकारसे प्रयत्न करता है अर्थात् अपनी सेनासे युक्त होकर हत्ती, राज्य, आधीनस्थ राजा, दुर्गम नदी, प्राम, वन, खाई, दीवाल, रक्षक हितैषी, नगरद्वार रक्षक, प्राहरिक, बडे २ दरवाजे, व बहुत धनका व्यय और प्राप्ति जिनसे होती है ऐसे द्वीप इन सबकी सहायता से राजा जिस प्रकार अपने खजाने की रक्षा करता है उसी प्रकार वह राजा अपने निर्मल पुण्य को भी इन सब की सहायतासे आपत्तियोंसे रक्षण करें ॥ २०५॥
अभयदानमभयंकरमार्याम्मुगतिदानचतुरं सुखधाम । विदितचारुयश कुलगेहं सकलजीवनिलयं प्रवदंति ॥ अर्थ-सज्जनोत्तम पुरुष अभयदानको अभय उत्पन्न करनेवाला