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दानशासनम्
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भावो देश इबान्वयः पुरमिवावासः कृतोऽन्यैर्वषु- । माता श्रीरिव सा पिता जनपकात्पौराः प्रजा बांधवाः ।। क्षेत्र क्षेत्रमिवात्मजा इव सुसस्यौघाः कथं तत्र भोः । कांप्रीतिं कुरुते भवाग्निजकृतेः प्रीति कुटुंबी यथा॥२०२॥ अर्थ- हे भव्य ! संसारके प्रति मोह बढाना उचित नहीं है । यह संसार देशके समान है। अपना कुल नगरके समान है। शरीर दूसरोंके द्वारा बनाया हुआ मकानके समान है, माता संपत्तिके समान व पिता राजाके समान है। बंधुजन पुरवासी प्रजावोंके समान हैं। क्षेत्र खेतके समान है व अपने पुत्र सस्यसमूहके समान हैं । ऐसी अवस्थामें इन संसारबुद्धिके कारणोंमें क्यों प्रीति करते हो अर्थात् उपर्युक्त सभी संसारमोहको वृद्धि करनेवाले हैं। उनमें मोह छोडना यह विवेकियोंका कर्तव्य है ।। २०२ ॥
स्यात्पंचव्रतसालपंचकवृते देहेऽघराजावृते । दुर्भावाः खलु वृत्तयो रिपुनृपं दृष्ट्वा पतित्वा ततः ॥ ब्रयुस्ते शिथिलाः पतंति तरुणीमत्तेमक्स्पृष्टितो ।
नातः शुद्धिरसं व्रतं च न बलं साध्यस्त्वयायं ध्रुवं ॥२०३ अर्थ-पंचमहाव्रतरूपी पंच परकोटसे रक्षित इस शरीररूपी राज्य को जब पापराजा आकर घेरते हैं, तब मिथ्यात्य, दुराचरण आदि शत्रु राजावोंको देखकर एवं तरुणीरूपी मदोन्मत्त हाथीको देखने व स्पर्शसे यह सुरक्षित राज्यस्थित आत्मा अपने स्थानसे विचलित होता है एवं शिथिल होजाता है जब उसके अंतरंग शुद्धि नही रहती है और न व्रतमें शुद्धि रहती है और न कोई आत्मशक्ति रहती है। इसलिये हे भव्य ! हरसमय मिथ्यात्वादि दुर्भावोंसे अपनेको बचाये रखो ।२०६॥
या विद्या फलदा तयैव चतुरा भाग्यं लभंते सदा । तत्रासक्तिरनूद्यमःसुपठनं तस्याःश्रुतिश्चिंतनम् ॥