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दातृलक्षणविधिः
अनेक प्रकारके पापोंसे छुडाकर पुण्यप्रदान करनेके लिए भी यही पात्र समर्थ है, इस प्रकार पात्रके आगमनमें अद्वितीय आनंदको प्राप्त करना इसे मुनिगण श्रद्धा नामक गुण कहते हैं ॥ ८ ॥
तुष्टिमाह. यथा चंद्रोदये जाते वृद्धिं याति पयोनिधिः ॥
सतां हृदयतोषाब्धिमुनिचंद्रोदये तथा ॥ ९ ॥ अर्थ-जिस प्रकार चंद्रके उदय होनेपर समुद्र उमड आता है उसी प्रकार मुनिरूपी चंद्रके उदय होनेपर सज्जनोंके चित्तमें संतोषरूपी समुद्र उमड आता है । इसे तुष्टिगुण कहते हैं ॥९॥
१ भक्तिमाह. आभुक्तर्मुनिसन्निधौ शुभमतिः स्थित्वा विशोध्यामला- । नाहारान्परिहार्य वीक्ष्य सततं मार्जारकीटादिकान् ॥ भुक्त्यंते परिणम्य साधुहृदि संतृप्तो भवेद्यः पुमान् । दाता तन्मुनिसेवनेयमुदिता भक्तिश्च सा पुण्यदा ॥१०॥
अर्थ-पुण्यवान् श्रावक जबतक तपोधनमुनियोंका आहार हो तबतक बहुत विनयके साथ उनके पासमें खडे होकर आहारशोधन कर उनके हाथमें निर्मल भोजनको देवें । सदा मुनियोंके आहारमें विघ्न करनेवाले मार्जार क्रिमिकीटादिकको पासमें नहीं आने देता है । निरंतराय भोजन होने के बाद संतुष्ट होकर तृप्त होता है । ऐसा जो निर्मल चित्तवाला श्रावक जब इस प्रकार की मुनिसंवा करता है उसे जाक्ति कहते है, रही पुण्यप्रदान करनेवाली है। वही भक्त उत्तमदाता है ॥ १० ॥
TAINMENT
१ जिने जिनागमे सूरौं तपःश्रुतपरायणे । सनावशुद्धिसंपन्नोऽनुरागो भक्तिरुच्यते ॥
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