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दानशासनम्
प्रातः प्रोत्थाय दाता शुचिरपि निजहस्तात्तपूजोचितार्यो। गत्वा नुत्वा मुनीन्द्रान्धृतदिनमियमो देवपूजां गुरूणां ॥ भुक्तिं देहस्थितिं तत्तदुचितसुविधां तच्चिकित्सा विचार्य। क्षिप्रं बंधूनिवार्यानुपचरतु जिनेंद्राकृतीन्साधुसाधून् ॥११॥
अर्थ-धर्मात्मा दाता प्रातः काल उठकर शौचस्नानादि क्रिया वोंसे निवृत्त होकर अपने हाथमें पूजाकेलिये योग्य सामग्रियोंको लेकर मंदिर जावें । वहां देवपूजा व गुरुपूजा कर, मुनींद्रोंकी वंदना कर दिननियमव्रतको ग्रहण करें एवं उन मुनियोंकी देहस्थिति आदिको विचार कर उनकी देहस्थितिके लिये उपयुक्त आहार व चिकित्सा आदिको व्यवस्था कर बहुत शीघ्र अपने बंधुवोंके समान उन जिनेंद्राकारमें रहनेवाले उन सज्जन साधु आचार्योका उपचार करें । यह उत्तम दाताका लक्षण है ॥ ११ ॥
यद्भोगाय निजं वपुर्गणिकया दत्तं स्वभर्तुस्तदा । स्वादत्तं फल मेव नोत्तरफलं बाह्यक्रियास्तन्मनः ॥ स्वीकृत्याखिलमिष्टवस्तु च यथा सद्दापयंत्यन्वहं ।
पात्रक्षेत्रकृतक्रियाबहुफलं दद्यर्द्विजन्मोचितं ॥ १२ ॥ अर्थ-जिस प्रकार वेश्या यह समझती है कि अमुक पुरुषके साथ भोग करनेसे उससे मुझे सद्यःफलके सिवाय आगे कुछ नहीं मिलेगा, इसलिए उसे बाह्य क्रियाओंसे रंजन करना चाहिये । वैसा करनेपर वह पुरुष बार २ उसके पास आकर अनेक प्रकारके इष्ट पदार्थोको देकर उसकी इच्छापूर्ति करता है, उसी प्रकार खेतमें अच्छे फलको प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले किसानको भी खेतका बाह्य संस्कार करना पडता है। ठीक उसी प्रकार अंतरंग भक्तिके साथ बाह्य क्रियावोंसे युक्त होकर पात्रोंको दान देनेसे दोनों जन्मोंमें उसका फल मिलता है ॥ १२ ॥