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दातलक्षणविधिः
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क्षुद्वंतं परितो विचार्य सुदृशं सद्वृत्तमेकं बुधं । वीथीगेहजिनालयर्षिनिलयद्वारस्थितं चैकधा ॥ जैनो जेमति यः क्रमाद्विगुणितान्दोषान्स याति क्षणात् । बुद्ध्वोदास्य स नित्यपुण्यधनतेनोमानहानि क्रमात् ॥१३॥ अर्थ-जो धर्मात्मा जैनी भूखे सम्यग्दृष्टि, व्रती, विद्वान् आदिको रास्तेमें, घरके द्वारमें, जिनालयमें, मुनिवासमें देखकर भी उसको भोजन के लिए नहीं कहता है, उसको अनेक प्रकार के दोषसंभव होते हैं। एवं इस प्रकार उदासीन होकर जो स्वयं जाकर भोजन करता है उसका पुण्य, धन व मान आदि क्रम २ से नष्ट होते हैं । साधर्मि भाईयोंका अतिथिसत्कार करना यह धर्मात्माओंका कर्तव्य है ॥ १३ ॥
विज्ञान. सात्म्यं सवतरक्षणं यदमलं सेव्यं त्वसेव्योज्झितं । यदुर्दोषहरं यथामयहरं यन्मानसस्थानकृत् ॥ यन्निद्रादिहरं यदव्ययमनुस्वाध्यायसंपत्तिकृत् । पूतं यद्वतिहस्तदत्तमशनं विज्ञाय दद्याद्यतेः ॥ १४ ॥ अर्थ--उत्तम दाताको उचित है कि वह पात्रको ऐसे आहार देखें जो कि पात्रके शरीरके लिए अनुकूल हो, व्रतरक्षणके लिए साधक हो, पवित्र हो, भक्ष्य हो, असेव्यपदार्थसे रहित हो, अनेक मिथ्यादोषों को दूर करनेवाला हो, रोगोंका नाशक हो, मनको स्थिर करने में साधक हो, जो निद्रातंद्रादिकको नष्ट करनेवाला हो, स्वाध्यायादि क्रियाओंमें सहायक हो, बालक आदि के द्वारा भुक्त व दुष्ट होनेसे अपवित्र न हो, इस प्रकार पात्रोंको आहार देते समय तत्संबंधी पूर्ण ज्ञान रखते हुए पात्रों के हाथमें आहार देना चाहिए ॥ १४ ।।
कंजूस दाता बहनन्तमवेक्ष्य यो मनसि च स्मृत्वापि सन्विस्मितः । शक्तो नो भवितव्यपाढकशताहारोऽहमस्यान्वहं ।