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दानफलविचार
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दरिद्र स्मृत्वा चेतसि गोपतिः क्षुदितवान् संपन्नसस्यां घरां। गत्वा तत्र विचारयनिव सदा वर्तेत योऽतीवके ।। ग्रंथो दुःखकरो भवन्न मदनं नास्य व्ययायागमत् । कश्चिन्नो ऋणदोऽधमर्ण इह चान्यार्थान्हरेयुर्मिषात्॥१५७॥
अर्थ-जिसप्रकार भूखसे पीडित बैल किसी सस्यसंपन्न खेतको स्मरणकर जाता है व उस खेतको खा डालता है एवं सदा इसी प्रकारके विचार में रहता है कि मुझे और कहां खेत मिलेगा। इसी प्रकार दुःखकर परिग्रहोंको एकत्रित करनेवाला एवं उसके संरक्षण व व्ययकेलिए धन जिसके पास नहीं है ऐसा दरिद्र सदा अनेक प्रकारकी बहाना बाजीकर दूसरों के द्रव्यको अपहरण करता है ॥ १५७ ॥
विभावभावसे युक्त युवती श्रुत्वा पात्रमिहागतं च तरुणी पत्युर्वचस्तत्क्षणात् । स्फूर्जती खलु वज्रवत् प्रसविनीव्याधीव सा स्फोटिनी ।। घुष्टा शूलवतीव पातितधनेवादिनी तन्मुखं । राहुग्रस्तरवींदुर्विवमिव निस्तेजोकरं निष्पभम् ॥ १५८॥ अर्थ-घरमें यदि क्रूर परिणामसे युक्त पत्नी हो तो वह पतिके द्वारा पात्रके प्रतिग्रहणके वचनको सुनकर एकदम क्रोधित होती है, . बिजलीके समान गर्जती है, प्रसविनी शेरनीके समान स्फोटन करती है, शूलवतीके समान शब्द करती है। अपने धनके खोए हुए के समान रोती है, विशेष क्या ? उसका मुख राहुग्रस्त चंद्र व सूर्यबिंबके समान निस्तेज हो जाता है ॥ १५८ ॥
धर्मविध्वंसिनी स्त्री रक्ताक्षी कुपितानना हतशिरा या विक्षिपती हठात् । पुत्राद्यर्थचयं नदरपदयुगा पात्रं शपंती कुधा ।।