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दानफलविचार
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समान है, गामके पासमें रहनेवालं शौचोपयोगी जलाशयके समान है, उनके द्वारा स्पृष्ट गृह भी ब्राह्मणके लिए प्रवेश करने योग्य नहीं है । यदि उपर्युक्त बातोंका वह ब्राह्मण सेवन करे तो वह ब्राह्मण कैसे हो सकता है ? ॥ १३४ ॥
ब्राह्मण्यस्य लयं विचारयसि जीवाय क्षयं न्यग्गतिं । किं नांगाय धमाय संचरसि संस्थायां च संवर्तसे ॥ कि कर्मास्ति न तस्य नीचनृपतेः सेवां करोष्यस्ति किं ।
नाचं शूद्रगृहान्नभुक्तिरघदा पुण्याय किं योगिनाम् ॥१३५ अर्थ-सच्छूद्रके घरभे आहार लेनेसे ब्राह्मणत्वका नाश होता है और जीवको अक्षय नाचगतिकी प्राप्ति होती है, ऐसा समझना भूल है। हे द्विज ! तू नीच राजाकी सेवा करके शरीरपोषण करता है, धन कमाता है, ऐसे कर्म करनेसे अशुभ कर्म बंधनेसे क्या तुझे दुर्गतिकी प्राप्ति नहीं होगी ? अवश्य होगी । अतः सच्छूद्र का आहार लेने में दोष नहीं है । क्यों कि वे सच्छूद्र त्रिवर्णमेंसे ही उत्पन्न हैं। अतः आहारदान योग्य समझ कर मुनिजन उनके घरमें शुद्ध आहारको लेते हैं। और वह आहार लेनेवाले मुनिवर्यको और देनेवाले सच्छूद्र को पुण्यके लिए कारण होता है । पापकारण नहीं होता है ऐसा समझना चाहिए ॥ १३५ ॥
वित्रं दुर्गतिगामिनं बुधजना नीचं वंति ध्रुवम् । नीचं सद्गतिगामिनं द्विजवरं पुण्याधिकं भूमिपं ।। पापाचाररतं द्विजं परिहरन्त्यत्रैव तत्संगति ।
कर्मण्येव विनाशयंति मुनयः शूद्वैस्सुपुण्यार्थिभिः॥१३६॥ अर्थ-अनेक दुराचरणोंसे युक्त ब्राह्मणको बुद्धिमान् लोग नीच कहते हैं, वह इसी भवमें नीच होता है एवं आगेके भवमें भी नीच गतिको ही जाता है । इसी प्रकार सदाचरण, धर्माभ्यास आदिमें रत