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दानशासनम्
ऐसे शूद्रको लोग प्रशंसाकी दृष्टिसे देखते हैं । नहीं वह आगामी भवमें ब्राह्मण सातिशय पुण्य के धारक राजा होगा । पापाचरण मग्न ब्रह्मण को इसी भवमें गुरुजन, बंधुजन बहिष्कृत करते हैं जिससे उसे सत्संगति से वंचित होना पडता है । पुण्यकी अपेक्षा करनेवाले व्रतादि शुभ आचरण में मग्न सच्छूद्र मुनिगणोंको आहार देकर अपने कर्मों. को नष्ट करते हैं ॥ १३६ ॥
इतना
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होगा 1 या
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दिमा धर्मचितोऽधना नृपतयश्चोरा भवंति स्म ते । वैश्यास्तत्र वृषद्वयाय ददते वित्तानि यत्रासते ॥ शूद्रा दानपरा जिनोत्सवकरास्सद्धर्मधौरेयका- 1 स्तेषां सद्मसु झुंजतेऽत्र मुनयो निर्मुक्तवंशक्रमाः ॥ १३७ ॥ अर्थ- - कालके परिवर्तन से ब्राह्मण लोग दरिद्री होगये, क्षत्रिय दुष्टनिग्रह शिष्टपरिपालन के बजाय दूसरोंके धनको अन्याय से अपरण करने लगे, अतएव चोर बन गये । वैश्यजन जहां रहते हैं वहां अपने न्यायोपार्जित वित्तसे देव धर्म के लिए द्रव्य खर्च करते हैं, परंतु सच्छूद्र सदा दानतत्पर रहते हैं । अतएव उनके घरमें मुनिगण आहार लेते हैं ।। १३७ ॥
चातुर्वर्ण्यमहत्त्व.
निधिदशरुद्रदिवाकर वर्णान्वितकनकसन्निभाश्वत्वारः || शूदोरव्यक्षत्रियविप्राः स्युजैिनमुनींद्ररक्षणयोग्याः ॥ १३८ ॥ अर्थ - नवनिधि, दश, एकादशरुद्र, वारह सूर्य इन वर्णोंसे युक्त सुवर्ण के समान तेजःपुंन रहनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व सच्छूद्र जिन मुनियोंकी रक्षा करने में समर्थ हैं | इतर नहीं ॥ १३८ ॥
यो विप्रः स सुहग्सुधीः सुचरितो ज्ञानी पुमान्ब्राह्मणः । संसारार्णववाद वोऽनुपहतस्त्रैरत्न संपत्तिमान् ॥