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दानशासनम्
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तिक्तद्रौ च कषायके तुवरजां यद्यद्गुणे तद्गुणा- ।
नप्येकांधुजलं प्रयाति च यथा पानेषु दत्तं धनम् ॥१२२॥ अर्थ-जिसप्रकार एक ही कूएका मिष्टजल किंपाकवृक्षमें जाकर विषरूप, निंबके वृक्षमें कडुआ, ईखमें माधुर्य, इमलकि वृक्षमें खट्टा, समुद्रमें खारा, तीखे वृक्षमें तीखा, कषायले वृक्षों कषाय आदि जो जिसका जो गुण हो धारण कर लेता है। इसीप्रकार दाताके द्वारा दिये गये द्रव्य जैसा पात्र हो उस प्रकार के गुणोंको धारण करता है । इसलिए विवेकी दाताको चाहिये, कि वह पात्रभेदोंको अच्छीतरह जानकर दान देवें ॥ १३२ ॥
ग्रैष्मातीवसंतापायथा पद्माकरव्ययः । लोभोऽल्पोऽथ व्ययो भूरिदर्दानं कुर्यात्ततो बहुः ॥ १३३ ॥ अर्थ-जिस प्रकार गर्मीके दिनोमें सूर्यके उष्ण किरणोंसे सरोवर वगैरे सूख जाते हैं, उसीप्रकार सातिशय पुण्यके किरणोंसे लोभरूपी सरोवर सूख जाता है । इसलिए अधिक दान देकर पुण्यकी अर्जना करना चाहिये ॥ १३३ ॥
शूद्रानत्याग शुद्राग्नं कुलनाशकं बहुवदन्विप्रोऽधकृत्पुण्यहद्वेश्यावक्त्रमशेषलोकमणिकासास्वभांडोपमं । क्षेत्रग्रामजलाशयोपममिदं स्पृष्टं स्वाहम्
नो सेव्यं यदि सेव्यसेवकजनो विषः कथं जायते ॥१३॥ अर्थ-संपूर्ण लोकको धर्माचरणमें स्थिर रहने के लिए उपदेश देनेवाला ब्राह्मण कभी शूदान्न, जल, तैल, घृत, नवनीतादिकका भक्षण न करें । वह कुलनाशक है । पापका संचय करनेवाला है, पुण्यको नष्ट करनेवाला है, वेश्याकं मुखके समान अपवित्र है, उच्छिष्ट पात्रके