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दानफलविचार
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लेते हैं और वहां देवांगनावोंके साथ क्लेशरहित होकर सदा सुख भोगते हैं ॥ ७२ ॥
आयव्ययविवेक आयो वस्तु कियान्व्ययो मम विभज्यालोच्य देवाय यं । दानायापि गृहाय चैवसि सदा कुर्यानिजार्थव्ययं ॥ यो वर्तेत भवेद्रती स लभते पुण्यं धनं कार्षिको ।
भृत्यायेव परिग्रहाय च करायोपक्षयायात्ममः ॥ ७३ ।। अर्थ-बुद्धिमान किसान सदा इस बातका विचार किया करता है कि मेरे खेतमें उत्पन्न कितना होगा, और व्यय कितना होगा । उससे खेती करनेवाले नौकरोंको मुझे कितना देना होगा। मेरे कुटुंबीजनोंको कितना देना होगा। सरकारी कर कितना भरना होगा एवं बीज भादिका खर्चा व अन्य खर्चा कितना होगा । इत्यादि प्रकारसे आयव्ययको विचार कर खेती करनेसे उसे लाभ होता है । इसी प्रकार पुण्यधनको अर्जन करनेवाला श्रावक इस बातका विचार करें कि मुझे आय कितना है और व्यय कितना है । मेरी संपत्तिसे देवपूजाके लिए कितना लगाना है । दानके लिए कितना लगाना है । कुटुंबियोंके पोषणके लिए कितना लगाना है । मुझे उसे किस प्रकार उपयोग करना चाहिये । इत्यादि विषयको विवेकपूर्वक सम्झकर धनका उपयोग करें तो बाह्यसंपत्ति के साथ अंतरंग संपत्ति ( पुण्य ) भी बढ़ती है ॥७३॥
आयव्ययमनालोच्य यो व्ययत्यनिशं स ना।। विनश्येत्सर्वदा तस्य सुखं स्वप्नेऽपि दुर्लभम् ॥ ७४ ॥ अर्थ- जो व्यक्ति अपने आयव्ययको विचार न कर व्यय करता जाता है वह अवश्य ही एक दिन नष्ट होता है अर्थात् उसे दिवाला निकालना पड़ता है। उसे स्वप्न में भी सुख नहीं मिल सकता है ॥७४॥