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२०४
दानशासनम्
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गुरुसेवा दहति दुरितकक्षं जन्मबंध लुनीते ।। वितरति यमसिद्धिं भावद्धिं तनोति ॥ नयति जननतीरं ज्ञानराज्यं च दत्ते ।
ध्रुवमिह मनुमानां वृद्धसेवैव साध्वी ॥ ७५ ॥ अर्थ- इस संसारमें जिनभक्तों के द्वारा की हुई वृद्धसेवा अर्थात् गुरुजनसेवा बनाग्निके समान पापारण्यको जला देती है, दातृजनोंके जन्मबंधको नाश करती है । आजन्मत्रत धारण करनेका सामर्थ्य प्रदान करती है, भावशुद्धिको प्राप्त कराती हैं, विशेष क्या ? इस संसारके तीरपर इस आत्माको ले जाकर ज्ञानराज्यमें अधिष्ठित करती है ॥७५॥
असहमिह दरिद्रं मारयत्याशुलक्ष्मी- । रगद इव विशिष्टो दुष्टरोगानशेषान् ॥ गिरिमिव पविरात्मा शेषपापं निहन्ति ।
ध्रुवमिह मनुजानां वृद्धसैवैव साध्वी ॥ ७६ ॥ .. अर्थ-गुरुजनोंकी सेवाके फलसे ही असहनीय दरिद्रता भी दूर होकर लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । अमृतौषध जिसप्रकार समस्त रोगोंको दूर करता है, वज्रायुध जिसप्रकार पर्वतको तोड देता है इसी प्रकार यह गुरुसेवा आत्माके समस्त पापोंको नष्ट करती है ।। ७६ ॥
रविरिव दुरिताख्यं नाशयत्यंधकारं । पटुतरजठराग्निः क्षिपमाहारदोषान् ॥ भवभवकृतकर्मव्यापदुग्रामयादीन् । ध्रुवमिह मनुजानां वृद्धसेवैव साध्वी ॥ ७७ ।। अर्थ-यह वृद्धसेवा सूर्यके समान पापरूपी अंधकारको नष्ट । करती है। तीव्र जठराग्नि जिस प्रकार आहारके समस्त दोषोंका नाश