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दानशासन
मोक्ष, तपसे इष्टकार्यकी सिद्धि, सत्यसे वचन शुद्धि, शांतिसे पूजा, और चारित्रसे संसारके अंतको प्राप्त करता है ॥ १५ ॥
दान सुभोजनके समान है. तपोऽशनं वृत्तमशेषशाकता दयाज्यदुग्धं मधुरो रसः शमः ॥ ऋतं हितं ध्यानमतीव लोलता विभाति दानं च सुभोजनं यथा ॥
अर्थ- द्वादश प्रकारके तप करना यह आहार है, चारित्रका पालन करना यह शाकभाजी है, दया उसमें घी और दूध है, शांति मीठा रस है, सत्य उस भोजनका पथ्य है । ध्यान उस भोजनकी रुचि है। दान उसमें भी स्वर्गीय भोजनके समान है। जिस प्रकार अच्छा भोजन करनेसे मनुष्यको तात्कालिक आनंद होता है उसी प्रकार इन गुणोंके धारण करनेसे अतुल आनंद होता है ॥१६॥
सुक्षेत्र मुतपो दयाहृदयं ज्ञानं सुवृष्टिः शमः । सस्याम्कानकरो गुणोप्यऽविरतं सत्यं सुवर्द्धिष्णुता ॥ दानं बीजमशेषवृत्तममलः सूर्यश्च पुण्यैषिणोप्येतस्सप्तगुणैरशेषसुकृतं संचिन्वते धार्मिकाः ॥ १७॥ अर्थ-तप एक उत्तम क्षेत्र ( खेत ) है, दयासे पूर्ण हृदय व ज्ञान बरसात है, सस्योंको प्रफुल्ल करनेवाला गुण शांति है, निर्दोषवचन सस्यों को बढानेवाले सूर्यकिरणोंके समान हैं। दान उस खेतकेलिये बीज के समान है। निरतिचार चारित्र दुरितांधकारको दूर करनेवाले निर्मल सूर्यबिंब के समान है। पुण्यको चाहनेवाले धार्मिक पुरुष इन सप्तगुणोंको धारण कर सदाकाल पुण्यार्जन करते हैं ॥ १७ ॥
सत्पात्रका आदर और अनादर करनका फल. सदादरेणैव ददाति दानं ।। लक्ष्मीः सदा भोगकरी मनोज्ञा ॥