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दानावधिद्रव्यदातपात्रलक्षण
'अर्थ-अज्ञानीजन पशूके समान सभी स्त्रियोमें समान सुख है ऐसा समझता है एवं सभी भूमियोंमें बोया हुआ बीज समान फलको देनेवाला है ऐसा मानता है । भूमि गृह और द्रव्यको देनेवाला मेरा स्वामी, राजा, मेरा गुरु, पुरवासी, मेरे मित्रा, मेरे सुखदुःखमें साथ आनेवाले मेरे बंधु इस प्रकार समझनेवाले कृषिक अन्य स्त्रियोमें सुख नहीं मानता है । उससे अपना धर्म, कुल व पुण्य का नाश होता है । इसलिये पात्रका विचार अवश्य करना चाहिये ऐसा समझकर वह, अपनी स्त्रीमें सुख 'धर्म, कुल और पुण्यकी वृद्धि है ऐसा समझता है । जिस प्रकार अपने
आश्रित प्रजाओंकी धनधान्यादिसे राजा रक्षा करते हैं उसी प्रकार जिनेंद्रमार्गके आश्रित संघकी रक्षा करना यह प्रत्येक सम्यग्दृष्टिका कर्तव्य है उससे उनके पुण्यकी वृद्धि भी होती है ॥ १२ ॥ १३ ॥
श्रीजैनेंद्रोत्सवाय प्रविमलवृषसंवर्द्धनायैव दात्रा । दानं प्रोक्तं सरत्नत्रय शुभजनसंपुष्टये दत्तवित्तम् ॥ . स्वस्यापि श्रेयसे यत्मविततयशसे शुद्धपुण्यार्जनाय ।
स्वाधीनान्कर्तुमन्यानितरजनकृतस्यांतरायस्थ हो॥ १४ ॥ अर्थ-श्रीजैनधर्मकी प्रभावनाके लिये, निर्मलशासनकी वृद्धि के लिये, रत्नत्रयधारियोंके पोषणके लिये, एवं अपने कल्याणके लिये, यशके लिये पुण्यके प्राप्तिकं लिये, दूसरोंको अपने आधीनमें करनेके लिये, दूसरों के द्वारा जिनमार्ग में किये गये अंतरायोंको दूर करने के लिये दान कहा गया है, दानसे इतने उद्देश्योंकी पूर्ति होती है॥ १४ ॥
सत्पात्रदानका माहात्म्य. दानेन भोगं दयया सुरूपं ध्यानेन मोक्षं तपसेष्टसिद्धिं ॥
सत्येन वाक्यं प्रशमेन पूजां वृत्तेन जन्मानमुपैति मर्त्यः ॥ अर्थ-इस लोकमें मनुष्य दानसे भोग, दयासे सुंदर रूप, ध्यानसे