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१६.
दानेशासनम्
अर्थ — जो अज्ञानी जीव मिथ्यात्वियोंको योग्य पात्र समझकर दान देता हो वह मिथ्यात्व कोही प्राप्त करता है, वैसेही पापियोंको देवे तो पापको प्राप्त करता है, दुष्टको देता हो तो दुष्टताको प्राप्त करता है । जो जैसा करे वैसा भरे यह लोक में कहावत प्रसिद्ध है । इस लिये योग्य पात्रको देखकरही दान देना चाहिये ॥ ९ ॥
क्रोधिभ्यो लभते क्रोधं रिपुभ्यो रिपुतामपि । जारत्वमेव जारेभ्यश्चोरेभ्यश्चोरतां तथा ॥ १० ॥
अर्थ - क्रोधियोंको दान देनेसे क्रोधको प्राप्त करता है शत्रुषोंको दान देने से वैरभावको प्राप्त करता है, जारोंको दान देकर विटत्व और चोरोंको दान देकर चौर्यभावको प्राप्त करता है ॥ १० ॥
धान्यानि सर्वाण्यपि धान्यवद्भ्यो । "वित्तानि दत्वाददते प्रजाश्च । दानानि दत्वाप्यघपुण्यवद्भ्यः || पापानि पुण्यानि यथा तथैव ॥ ११ ॥ अर्थ - जिस प्रकार ठोक में धन देकर धान्यवालोंसे धान्य खरीदते हैं इसीप्रकार दानरूपी धन देकर पापियोंसे पाप और पुण्यात्मानोंसे पुण्य खरीदते हैं ॥ ११ ॥
'सर्वासु स्त्रीषु सौख्यं सममिति मनुते गौरिवाश्नन् स लोकः । सर्वोवबीजं फलति बहुफलं लोकादो न शास्त्रम् ॥ भूगेहार्थप्रदाता पतिरिपुपुरनेता गुरुः पौरमया । मित्राणीवाद्य संतः सुखमसुखयशोबंधवः कार्षिको में ॥ स्यादन्यासु सुखं न धर्मकुल सत्पुण्याभिवृद्धिर्न च । स्वस्त्रीवस्ति सुखं स्वधर्मकुलसत्पुण्याभिवृद्धिस्तथा || Fararaon सेवानिह धनै रक्षति भूपा यथा । स्वस्वाम्याश्रित संघ मेव सुदृशोऽप्यर्चन्ति पुण्याय च ॥ १३ ॥