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दानफलविचार
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समृद्धि होती है । अर्थात् वह आनंदसे रहता है। परंतु जब वह पत्र फट जाय या छिन्न भिन्न होजाय तो उसका मरण ही होजाता है । कर्ज लेनेवाला पुरुष मरण सन्मुख हो तो धर्मात्मा सज्जन उसे उस ऋण पत्रको वापिस देवें, नहीं तो फाड डालें ॥ १५१ ॥
परापहरणफल । येऽर्थान्यस्य हरंति तस्य सकला ग्रंथा भवे याग्रिमे । भृत्यास्तस्यु ऋणागता निभृतयः सेवारसदा कुर्वते ॥ सत्पुण्यागतजंतवः सुकृतिनां पूतं वृषं स्वं कुलम् । रक्षतीदृशभेदवेदि विबुधोऽन्यार्थ त्रिधा वर्जयेत् ॥१५२॥ अर्थ-जो मनुष्य दूसरोंके धनको अपहरण करते हैं वे इस भवमें या अग्रिम भवमें उस धनके स्वामीके यहां भृत्य होकर पैदा होते हैं, चेतन परिग्रह होकर उत्पन्न होते हैं। उनको तबतक उनकी सेवा करनी पडती है जबतक कि वे ऋणमुक्त हो जाय। पूर्वजन्मके पुण्यसे संपत्तिको पाकर जो उत्पन्न होते हैं वे अपनी संपत्तिसे सज्जनोंकी, अपने पवित्र कुलकी ब धर्मकी रक्षा करते हैं। इस प्रकार पुण्य व पापोंके विभागको समझकर विवेकी पुरुष परधन अपहरण करने के कार्यको मन, वचन व कायसे वर्जन करें ॥ १५२ ॥
नीचव्यवहारत्याग नीचस्यार्थ न गृह्णीयाद्यान्नीचाय नोत्तमः ।
गृह्णीयान्यग्धनं नीच उत्तमस्यार्थमुत्तमः ॥ १५३ ॥ अर्थ-चांडालादि नीचोंको उत्तम पुरुष कर्ज न देखें एवं उन नीचोंसे कर्ज लेवें भी नहीं। वे चांडालादि अपने समान जातियोंसे ही इस प्रकारका व्यवहार करें, एवं उत्तम पुरुष उत्तम जातिके लोगोंसे ही व्यवहार करें ॥ १५३ ॥