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दानशासनम्
मानवीयमनोवृत्ति देहसुखान्यनुभवितु स्वीकृतद्ग्रंथपवितुमर्थमशेषं । दातुं ताम्यति नेषत्स्वागो दण्डाय परिणयाय निजादेः॥१४९॥ ऋणानुबंधात्परवित्तभुक्तिबलागतग्रंथसुरक्षणाय । व्ययत्यजस्रं सकलं धनं च क्लिश्नाति पुण्याय जडो जनोऽयम् ॥
अर्थ- अज्ञानी मनुष्योंकी मनोवृत्ति इस प्रकार रहती है कि वे अपने देहसुखको अनुभव करनेके लिए, अपने पासमें स्थित स्त्री, पुत्र, घर, वाहन आदि परिग्रहोंके संरक्षणके लिए चाहे जितना धन खर्च करते हैं, उनको उसमें जरा भी दुःख नहीं होता है, अपने लिए किसी अपराधमें दण्ड हुआ तो लाखों रुपये देनेके लिए तैयार रहते हैं। अपने व अपने पुत्रोंके विवाहमें लाखों रूपये फूंक देते हैं। ऋणानुबंधसे दूसरोंके द्रव्य आनेपर भी उसे बलात्कारसे प्राप्त परिग्रहों के संरक्षणकेलिए ही लगाते हैं । इस प्रकार संसारवृद्धि के कार्यमें व्यय करते हुए उनको जरा भी खेद नहीं होता । अपितु धर्मकार्यके लिए, पुण्यार्जनके लिए, दान देना पडे तो बडा दुःख होता है। ॥ १४९ ॥ १५० ॥
दूसरोंको कर्ज देनेवाला. यावत्पत्रं वसति निळये यस्य तस्याधमणस्तावत्पुनाः वृषहयखराभृत्यदासीः स्त्रियःस्युः ॥ तस्मिन्मिन्ने सपदि मरणं यांति ते मृत्युकाले ।
पत्रं दद्यात्सुकृतिपुरुषस्तानि पत्राणि भिंद्यात् ॥ १५१ ॥ अर्थ-जो मनुष्य दूसरोंको कर्ज देता है, उस कर्ज लेनेवालेसे जो पत्र वगैरे लिखालेता है, वह पत्र जबतक अपने घरपर मौजूद हो तब अपमेलिए पुत्र, कलत्र, दासी, दास, बैल घोडा, आदि हरतरहकी