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चतुर्विधदाननिरूपण
पापोंसे प्राणियोंका बडा अहित होता है। राजाके द्वारा प्राणदण्डको प्राप्त होते हैं, अगर कदाचित् प्राणनाश न भी हुआ तो अनेक प्रकारके रोग कष्ट देते हैं। चोर या शत्रुओंके द्वारा मरण होता है । अनेक प्रकारसे तिरस्कार प्राप्त होता है । जेल जाना पडता है, वहां बेडी पडती है, अनेक प्रकारके कष्ट मिलते हैं, उसके धनको दूसरे लोग लूटके लेजाते हैं, वह भीख मांगने लगता है। दूसरोंके सामने दीनता व कातरता को धारण करता है। विशेष क्या ? उसका भारी अधःपतन होता है । यह सब उस धर्मापराधकृत पापका फल है ॥ १९५ ॥
सप्ताचिर्दहतीव सर्वमनिशं हत्यर्कतेजो रसं । क्ष्वेडो जीवितमामयः सुखयुगं देवर्षिराजादिषु ॥ दम्पत्योः कुरुते विरोधमळयं सद्धंधुभृत्यादिषु । प्रत्यूहः कृतकार्यलाभसमयेष्विष्टानितुं क्षमः ॥ १९६ ॥ अर्थ-जो मनुष्य धर्मकार्योंमें, देवकार्योंमें व राजकार्योंमें विघ्न करता हो उसका अधःपतन होता है । जिस प्रकार अग्नि सर्व पदार्थीको जलाता है उसी प्रकार यह पाप उसके सर्व कार्योको नाश करता है । जिस प्रकार सूर्यका तेज पानीको सुखा देता है उसी प्रकार उसका भी तेज नष्ट होता है । विषसे जिस प्रकार प्राणघात होता है, रोगसे जिस प्रकार सुखका नाश होता है उसी प्रकार इस अंतरायकृत पापसे उसको मुख मिलता नहीं। इतना ही नहीं उस पापके कारणसे देवर्षि, राजा, राज्याधिकारी, बंधु, भृत्य व यहांतक की परस्पर दंपतियोंमें अविनाशी विरोध उत्पन्न होता है। उसके लिए जिस जिस कार्य में भी लाभ होनेकी संभावना हो उसे वह अंतरायकृत पाप रोकता है ॥१९६॥
कारुण्यांबु विशोषयन्प्रविमलज्ञानं समाच्छादयन् । श्रद्धानं च विनाशयन्नविरतं चारित्रमुलंघयन् ॥