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दानशालनम्
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आदेयं प्रविमोचयन्गुणगणानुन्मूळयन्याहयन् ।
सोऽयं दुष्कृतराड्विभाति विमले लाभे सदोदासयन् ॥ अर्थ--यह पापरूपी राजा क्षारजलको गरम करके सुखानेवाले नीचोंके समान करुणारूपी जलको जलाता है, मेघ सूर्यको, करण्ड रत्नको व घडा दीपकको जिस प्रकार आच्छादित करता हो वह निर्मल ज्ञानको आच्छादित करता है। विश्वासभ्रष्ट करनेवाले जार पुरुषके समान, स्वामिभृत्य-विश्वासको नष्ट करनेवाले दुर्जनोंके समान, देहमें आत्मबुद्धि करनेवाले रागके समान, कपडेकी सिलाई को छुडानेवाले धोबीके समान श्रद्धानभ्रष्ट करता है । अपने वंशगत धर्मपुण्यको नष्ट करानेवाली वेश्याके समान चारित्रसे भ्रष्ट करता है । गर्भकलंक करने पाले भूतोंके समान, शिशुहत्या करनेवाली विधवाओंके समान आगे प्राप्यपुण्यको नष्ट करता है, अच्छे डोरोंको काटनेवाले चूहोंके समान, शुद्ध तपोगुणको नष्ट करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्रियोंके समान गुणों को नष्ट करता है; हेयमें उपादेय व उपादेयमें हेयबुद्धि उत्पन्न करता है। निर्मल पुण्यलाभ में सदा विघ्न करता है। इसलिये देव, राज, धर्मकार्यमें कभी विघ्न नहीं करना चाहिये ॥ १९७ ॥
विघ्नान्वितस्य नृपतेविषयो बलं च । ग्रंथो विनश्यति यथा कुजनस्य संगात् ॥ शास्त्रं मुबुद्धिरमला च विवेकिता च । कर्पूरमिश्रतिलजस्य भवेज्जनोऽयम् ॥ १९८ ॥ अर्थ--- जैसे दुर्जनोंके संगतिसे शास्त्रज्ञान, सुबुद्धि, विवेक आदि सद्गुण नष्ट होते हैं उसी प्रकार देवधर्म-कार्यमें विघ्न करनेवाले राजाके आश्रयमें रहनेवाले देश व प्रजायें नष्ट होती हैं, वह स्वयं कर्पूरमिश्रित तेलको पीनेवालेके समान अपना अहित कर लेता है ॥ १९८ ॥