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चतुर्विधदाननिरूपण
काळे यस्य हतो महो न सुकृतस्तेनान्यतो वाईत - । स्वस्यान्दत्रयतो न चाधिपतिता द्विभिः स्वकीयैरधैः ॥ मृत्युः स्यान्न च सा सुतस्य कुलजस्यात्मीयभृत्यस्य वा । शत्रोर्धर्मविनाशकस्य खलु तद्देशस्य साप्यस्थिरा ॥ ११७ अर्थ - जिस राजाके आधिपत्य के समयमें जिनधर्मोत्सव में विघ्न डाला गया, उस अवस्थामें राजा उस विघ्नको दूर करने के लिये उत्साहित न हो वह पुण्यहीन हो जाता है एवं इस पापके उदयसे तीन वर्ष के अंदर राज्यच्युत हो जायगा । इतना ही नहीं अपने तीव्रपापोंसे शत्रुओं के द्वारा वह मरण भी पावेगा, एवं उसके पुत्र, कुलोत्पन्न या निकट सेवक आदि किसीको राज्यारोहण करनेका भाग्य न मिलेगा । जिस प्रकार उसकी वह संपत्ति नष्ट होनेवाली है उसी प्रकार जो शत्रु धर्म में बाधा पहुंचाता है उसकी भी संपत्ति नष्ट होगी । धर्मप्रभावना के कार्य में जो विघ्न डालेंगे उनका कभी हित नहीं हो सकता ॥ ११७ ॥
स्वामिद्रोही क्षयेदाशु तस्य शांतिर्न सर्वथा ! पीतौषधं विरेकाय बद्धकच्छगुदे यथा ॥ ११८ ॥
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अर्थ – जो स्वामिद्रोह, गुरुद्रोह, मित्रद्रोह, धर्मद्रोह आदि करता है वह पापके उदयसे शीघ्र नष्ट भ्रष्ट होगा । उस पापीके लिए कोई प्रायश्चित्त भी नहीं है । जिस प्रकार जुलाबके औषध लेनेवाला मनुष्य कांचको जोरसे बांध लेंवें तो भी कोई उपयोग नहीं उसी प्रकार ऐसे पापीको कोई मार्ग श्रेयस्कर नहीं हो सकता ॥ ११८ ॥
अन्यार्थीsयद इत्युशन्ति विबुधा हर्तुबलादाहृत-1 स्तिक्ताक्तं च पर्यो यथा व्रतिगुरुस्वार्थोऽम्लदुग्धं यथा ॥ देवार्थी विषवत्स्वभाग्यविषय ग्रंथार्थ सेनादिक- । ध्वंसी मक्ष्विह कृष्णपक्षशशिवन्निर्वाणमेति ध्रुवम् ॥ ११९ ॥ अर्थ – दुसरे का धन जो हरण करता है उस को पातक उत्पन्न