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दानशासनम्
अर्थ-प्रजागण योग्य स्थानको जानकर अथवा स्थानसंस्कार कर बीजका वपन करते हैं, परंतु खेद है कि सज्जन लोग उस प्रकार योग्य स्थानको जानकर पुण्यबीजका वपन नहीं करते हैं ॥५५॥
जारस्य स्त्रीविवादात्मकटयति सदा तन जारापतिस्तु । मौनीभूत्वाऽऽशये क्षुभ्यति च खलु तयोः क्लिश्यते बंधुवर्गः॥ सा निश्शंका स चैवं सुखयति दुरितं चिन्वते क्लेशतोऽमी । निर्विघ्नात्सा स जीवत्यनिशमघकरं पुण्यमाहुर्मुनींद्राः ।।५६।।
अर्थ-जार पुरुषका अपने स्त्रीके साथ जब कलह हो जाता है तब उसका अन्य स्त्रीके साथ संबंध है यह बात प्रकट होती है। अथवा वह जार पुरुष मौन धारण कर लेगा तो भी मन उसका क्षुब्ध अर्थात् शंकित होता है । वह जार पुरुष जिस स्त्रीके साथ संबंध रखता है उस के बंधुवर्ग उम्र के साथ द्वेष करते हैं । यद्यपि जारिणी अपने जारके साथ संभोग करके उस को खुश करती है तो भी उन दोनोंको पाप ही लगता है । कदाचित् बांधवगण न होनेसे वे निर्विघ्न कार्य करते हैं तो भी उनका पूर्वपुण्य पाप के लिए ही कारण होता है ऐसा मुनीश्वर भव्य जीवोंको कहते हैं । तात्पर्य-पुण्योदयसे अकार्य सफल होता है तो भी उस से पाप बंध ही होगा तथा नरकादि दुर्गतियोंकी प्राप्ति होगी ऐसा समझकर अकार्य का त्याग ही करना चाहिए ॥५६॥
पापकर पुण्य. केचिदाखटितुं गत्वा शून्यहस्ता भवन्त्यहो ।
तेषां पापकरं पुण्यं प्रवदन्ति मुनीश्वराः ॥५७॥ अर्थ-कोई कोई मनुष्य शिकार खेलने के लिए जाते हैं, वहांपर उनको शिकार न मिलने पर शून्यहस्तसे ही लौटते हैं । परंतु मनमें बडे दुःखी होते हैं। यद्यपि शिकार न मिलना यह उनका पुण्य ही है, परंतु उससे पुनः दुःखी होना व शिकार खेलनेकी प्रवृत्ति यह सब पापकर है, इसलिए यह पापकर पुण्य है, उससे पापार्जन होता है, इस प्रकार मुनिगण कहते हैं ।५७॥