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भावलक्षणविधानम्
... क्षरेयं वाशितं तस्य यथा कुक्षौ न तिष्ठति ।.. ... केषां चेतसि सद्धर्मस्तथा पुण्यं न तिष्ठति ॥ ५१ ॥
अर्थ-कुत्तेके द्वारा पीया हुआ घी उप्त के पेटमें कभी नहीं ठहरता है। उसी प्रकार किसी किसीके हृदय में सद्धर्म तथा पुण्य कभी नहीं ठहरता है ॥ ५१॥ ' वस्त्राक्रान्तनिशाकान्तिलयं याति यथातपे ।
धर्मेच्छा सुकृतं केषां दुस्संगात् क्षीयते क्रमात् ।। ५२ ॥ अर्थः-वस्त्र में व्याप्त हरिद्रा का रंग धूपमें नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार किसी किसीके धर्भ धारण करने की इछा व पुण्य नीचसंगतिसे नष्ट होते हैं ।। ५२ ॥
यथा वह्निमुखे सूतः सद्यो नास्ति त्रसदृशाम्। - मिथ्याक्सृष्टिवाग्द्रव्यभक्तिभिर्टगयक्षयः ॥ ५३ ॥ ... अर्थ-जिस प्रकार अग्निमुखमें उत्पन्न या रक्खा हुआ पदार्थ तरक्षण नष्ट होता है, उसी प्रकार जो सम्यग्दृष्टियोंको कष्ट पहुंचा कर, मिथ्या दृष्टियोंकी उत्पत्ति में प्रेरणा, द्रव्यदान, भक्ति आदिमें मदत पहुंचाता है " उस के दर्शन व पुण्य शीघ्र नष्ट होते हैं ॥ ५३ ॥ . आमकुंभे यथा तोयं सद्यस्तस्य विभेदकृत् । ।
हृद्यपके न धर्मोऽयं पीतौषधमिव ज्वरे ॥ ५४ ॥ अर्थ-कच्चे घडे में भरा हुआ पानी जिस प्रकार शीघ्र उस का भेदन करता है, उसी प्रकार कच्चे हृदय में स्थित धर्मकी भी हालत होती है। जिस प्रकार यह मनुष्य ज्वरको हालत में औषध पीता है
तो वह ज्वर का भेदन करता है, उसी प्रकार उस धर्म की भी हालत . होती है ॥ ५४ ॥ ...गावः प्रजाः पदं ज्ञात्वा कृत्वा बीजं वपन्यहो । ..
तथा न कृतिनः कुर्युः पुण्यबीजं वपन्ति न ॥ ५५ ॥