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दानशासनम्
ये वसंत्यशुचौ गेहे पात्रदानादिके कृते ॥ ग्रहादिभिस्सदा तेषामाध्यो व्याधयः क्षयाः ॥ १५ ॥
अर्थ — जो श्रावक पात्रदानादि सत्कार्यको करने के लिए अशुचि गृहमें रहते हैं, उन लोगोंको सदाकाल भूतप्रेतादियोंसे एवं चोर जार इत्यादि दुर्जनोंसे अनेक प्रकारके संकट उपस्थित किये जाते हैं, जिस कारणसे उनको सदा मानसिक चिंता व रोगबाधा बनी रहती है ||१५||
सूतकोच्छिष्टविण्मूत्रे नीचसंवेष्टिते स्थळे ॥
कृते सत्पात्रदानेऽस्मिन्पुराधिव्याधयोऽधिकाः ॥ १६ ॥ अर्थ - - सूतक, उच्छिष्ट, मल, मूत्र व चाण्डालादिके द्वारा स्पृष्ट स्थानमें जो सत्पात्रदान देता है उसे अधिक रोगादि बाधा उपस्थित होजाती है ॥ १६ ॥
क्षेत्रमादाव संस्कृत्य पश्चाद्वीजं वपन्निव ||
पात्र गेहमसंस्कृत्वा चान्नदानाल्लयं व्रजेत् ॥ १७ ॥
अर्थ - जिस प्रकार किसान योग्य समय में खेतका संस्कार नहीं करके बीज बो तो उससे कोई उपयोग नहीं होता है उसी प्रकार अन्नदान देने योग्य क्षेत्र अर्थात् घरका संस्कार न करके यदि दान देते हैं तो उससे कोई फल नहीं होता है ॥ १७ ॥
संस्कृत्य क्षेत्रमेवाद पश्चाद्वीजं वपन्निव ।
गेहूं पात्रं च संस्कृत्य कृतदानात्सुखी भवेत् ॥ १८ ॥
अर्थ - जिस प्रकार किसान खेतको पहिले गोबर आदि से संस्कार करके पीछे बीज बोता है तो उस खेत में सस्यवृद्धि वगैरह अच्छीतरह होकर फलकी प्राप्ति होती है जिससे किसान सुखी होता है उसी प्रकार दानशालाको होम पुण्याहवाचना आदिले संस्कृत कर एवं उसमें रहनेवाले दानपात्रों को भी शुद्ध कर उपलक्षणसे मन वचन कायको