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दानशाला लक्षण
दूध नहीं देते अर्थात् ऐसे द्रव्योंको हमें खाना उचित नहीं है ॥११॥ अशुचित्वं कुरुते यन्नीचकुले जन्म नीचमाहारं ॥ हिंसाच कृत्यवृत्तिस्ततो भवे दुर्गतिस्थितिर्भवति ॥ १२ ॥ अर्थ - जो मनुष्य गुरुवोंके भोजनस्थान को व देवोंके पूजन स्थानको अशुद्ध रखता है, वह आगामी भवमें जाकर नीच कुलमें जन्म लेता है, नीच आहार सेवन करनेवाला होता है, हिंसादि पंच पापोमें रत होता है । इसी प्रकार नरकादिदुर्गति में भ्रमण करता रहता है ॥ १२ ॥
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चाण्डालके लिए जैनगृहप्रवेशनिषेध
स चाण्डा लक्षणे स्वप्ने भूतमेनोऽथवा वदेत् ॥ तत्र गेहूं गते सद्यः पुण्यश्रीर्विषभागिव ॥ १३ ॥
अर्थ - - स्वप्नमें चण्डालको देखनेपर उसका फल भूतों का संचार ब अपने शौच की हानिको बतलाना चाहिये । चण्डालका स्पर्श हुआ तो ज्ञानहानि, उसके साथ भोजन करें तो मिथ्यात्वकी वृद्धि आदि फल होते हैं । इस प्रकार जिस चाण्डालका दर्शन, स्पर्शन आदि स्वप्न में भी दूषित है, वह प्रत्यक्षमें यदि किसी जैनघर में प्रवेश करें तो उस घर की पुण्यलक्ष्मी विषबाधासे पीडित के समान विना कहे भाग जाती है ॥ १३ ॥
चाण्डालादिस्पृष्टपाथः संकात्सस्यं न नश्यति || सूतकीस्पृष्टवाः सेका तत्प्रवेशाद्विनश्यति ॥ १४ ॥
अर्थ-- चाण्डालोंके हाथ से स्पृष्ट जलके सेचनसे कोई वृक्ष वगैरह नाश नहीं होते हैं । सूतकी अर्थात् रजस्वला आदि के द्वारा स्पृष्ट होने से वह वृक्षादिक नाश होते हैं । परंतु जैनगृह प्रवेशके विषय में चाहे चाण्डाल हो चाहे स्त्री हो दोनोंकी समानता है । उनके द्वारा प्रत्रिष्टगृह उनको (व्रतियोंको ) आहार ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥ १४ ॥