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दानशासनम्
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संकल्प न होता हो वह घर प्रशस्त है। उस घरके सर्व बरतनोंको एवं अन्य पाकोपकरणोंको बहुत प्रयत्नके साथ रक्षण करना चाहिये ॥७॥
अप्रशस्त गृह. चण्डालसूतकीयुक्त स्थान सत्रोचितं गुरोः स्फुलिंगदग्धपटवद्राजयोग्यं न सर्वथा ॥ ८ ॥ अर्थ-जिस प्रकार आगसे जला हुआ वस्त्र राजाके योग्य कभी नहीं हो सकता, उसी प्रकार जिसके घरमें चण्डाल व सूतकी रहते हों वहांपर भोजन करना गुरुवोंको कभी उचित नहीं है ॥ ८ ॥
गुरुवोंके आगमनकालमें सूतकियोंका कर्तव्य. तिष्ठेच्चलं विनैकत्र प्रसूता स्त्रीव सूतकी ।
चण्डालो न विशेज्जैनगेहचत्वरमेकदा ॥९॥ अर्थ-जिस प्रकार प्रसूत स्त्री इधर उधर न जाकर एक जगह बैठती है उसी प्रकार सूतकियोंको भी मुनिचर्याके समय एक जगह बैठ जाना चाहिये । चण्डाल जैनियोंके मकान में कभी प्रवेश न करें ॥९॥
गुरूणामागतौ तिष्ठेत् गौप्यस्थानेऽपि मृतकी ॥ तदृष्टिविषयी भूत्वा न तिष्ठन्न नमेद्वदेत् ॥१०॥ अर्थ-अपने घरमें गुरुवोंके आनेपर सूतकी व रजस्वला स्त्री गुप्त स्थानमें जाकर बैठें और ऐसे स्थानमें न बैठे जहां उन गुरुवोंके दृष्टिगोचर हो । ऐसे समय में गुरुवोंको नमस्कार नहीं करना चाहिये और न बोलना चाहिये ॥ १० ॥
देवगुरुयोग्यसेव्ये पीते पीडाज्यदुग्धदधितो ॥
व्रतिकौकसि वत्सो गौनश्यति न भरति दुग्धं चाये ॥११ अर्थ-देव गुरुवोंकी सेवाके योग्य दूध, दही आदिको जो स्वयं खालेता है उसके गाय भैंस आदि मरजाते हैं, कदाचित् जीवे तो भी