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दातृलक्षणविधिः
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अनुसार जो वे भोजन करते हों उन पदार्थोको परोसनेमें मन, वचन, काय से असंतोष न करें । बराबर संतोषसे परोसनेवालोंको परोसो, परोसो ऐसा कहना चाहिए, वही बुद्धिमान है, शक्तिशाली है, पुण्यवान् है, और दानशूर है ॥ २० ॥
धर्मो न स्वयमेष भावरहितः पुष्पादि बान्नादि वा।। दत्ता येन न बस्य दानकरणे मुख्यस्तु भावः शुभः ॥ . भावोदाटननर्तकीव ललिता या प्रेक्षकाणां मनां
स्याहत्यार्थचयं तु पूर्णसुकृतं दाता लभताक्षयं ॥२१॥ अर्थ-कषाय, ईर्ष्या व दिखावट के लिए किया गया भावरहित धर्माचरण धर्म ही नहीं है। दान करनेमें दाताका शुभभाव ही मुख्य है, उसमें अन्न पुष्पादिकोंकी मुख्यता नहीं है । जिस प्रकार राजसभा नर्तन करनेवाली सुंदरी अपने भावोंके द्वारा प्रेक्षकोंके मनको आकर्षितकर धनसंचय को करती है उसी प्रकार दाता भी अपने शुभ भावोंके द्वारा पात्रोंकी सेवा कर अक्षय पुण्यको संचय करें ॥ २१ ॥
दातशत्रफलमाह. क्षेत्रं जनाजनःक्षेत्रावाभ्यां धान्यं यथा भवेत् ।
दात्रा पात्रं तेन दाता द्वाभ्यां सौख्यप्रदो वृषः ॥२२॥ अर्थ-- खेतका संस्कार मनुष्योंसे ब मनुष्योंका संस्कार खेतसे और दोनोंसे धान्यका संस्कार होता है, उसी प्रकार दातासे पात्रका व पात्रसे दाताका एवं दोनोंसे सौल्य देनेवाले धर्मका संस्कार होता है ॥ २२ ॥
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सप्तगुणविवरणम् . हिताहितमजानता च शिशुना कृतोऽयं वृषः ॥ समस्त जनतुष्टिकद्बहुफलं भवेत्तस्य च । हिताहितविजानता कपटिना कृतांहाफलं ॥ सदा कपटिमंत्रिसेवितनृपो यथा नश्यति ॥