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दानशासनम्
धान्यं प्रजाभिस्तेन स्याज्जीवत्यत्र यथा जगत् । दात्रा पुण्यं ततः क्षेमारोग्यायुः श्रीकुलर्द्धयः ॥ २३ ॥
अर्थ - लोकमें धान्यकी उत्पत्ति किसानोंके द्वारा ही की जाती है । परंतु उसी धान्यसे लोककी सब प्रजायें जीवन व्यतीत करती हैं अर्थात् किसानोंके परिश्रमसे ही लोक सब जीता है, उसी प्रकार एक भी उत्तम दाता पुण्यका संचय करें तो उस पुण्यके बलसे उसके घरमें ही क्या राज्यमें भी क्षेम, आरोग्य, आयु, ऐश्वर्य और कुल आदिकी वृद्धि होती है || २३ ॥
देहभोगं परित्यक्त्वा वृष्टिजतोक्ति संश्रुतेः ।
गत्वा क्षेत्र वपंतीव तत्र बीजं कृषीवलाः ॥ २४ ॥ पात्रागमोक्तिसंश्रुत्या ज्ञानवृष्ट्युश्यचेतसां । इष्टान्नानि पात्राणां दातारो दद्युरादरात् ॥ २५ ॥
अर्थ - जिस प्रकार किसान लोग पानी बरसने के समाचारको सुनकर अपने देहसुखकी किंचित् भी परवाह न करते हुए खेत को दौडते हैं व बीज पेरते हैं, उसी प्रकार पात्रों के आगमन के समाचार को सुनकर एवं ज्ञानरूपी वृष्टिसे प्लावित चित्त होकर पात्रोंको इष्ट व हितकर आहारका दान देवें ॥ २४ २५ ॥
मुमुक्षूणां क्षुधां तीव्रां यो निवारयतीदृशं । स एव मान्यो वंद्योऽसौ संसार/ब्धितरण्डकः ॥
अर्थ — मोक्षमार्गमें रत श्रीमहर्षियोंकी तीव्र क्षुधाको जो उपर्युक्त उत्तम भावोंसे युक्त होकर निवारण करता है अर्थात् आहारदान देता हैवी व्यक्ति आदरणीय है, वंदनीय है और संसाररूपी समुद्रको पार करनेके किए सहारे के रूपमें है || २६ ॥