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दातृलक्षणविधिः
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क्षुधा कैसी है ? या सद्रूपविनाशिनी कृशकरी कामोत्सवध्वंसिनी । पुत्रभ्रातृकलत्रभेदनकरी धर्मार्थविध्वंसिनी ॥ चक्षुर्मदकरी तप:श्रुतहरी लज्जालुतानाशिनी ।
सा मां पीडति सर्वभूतदहनी प्राणापहारी क्षुधा ॥२७॥ अर्थ- जो शरीर की सुंदरताको नष्ट करती है, शरीरको कृश करती है, कामसेवनमें उत्साहका भंग करती है, पुत्र, भाई, स्त्री आदिमें भेदभाव उत्पन्न करती है, आंखकी दृष्टिको मंद करती है, तप व ज्ञानकी हानि करती है, लज्जा व विनयका नाश करती है, एवं जो सर्व प्राणियोंको रात-दिन जलाती है, इतना ही नहीं प्राणियोंके प्राण को अपहरण करने वाली है वह क्षुधा मुझे पांडा देती है ॥ २७ ॥
न दैन्यात्माणानां न च हृदयहरिणस्य रतये । .. न ददिंगानां न च करणकरिणोस्य मुदनात् ॥
विधावृत्तिः किंतु क्षतमदन चरितश्रुतविधेः । परे हेतौ मुक्तेरिह न खलु मुनिषु स्थितिरियम् ॥ २८ ॥ अर्थ-मुनिगण आहारमें जो प्रवृत्ति करते हैं वह दश प्राणोंकी कायरतासे नहीं, हृदयरूपी मृगके पोषणके लिए नहीं, शरीरके अवयवोंके मदसे भी नहीं, इंद्रियरूपी हाथीको संतुष्ट करनेके लिए भी नहीं है। अपि तु कामविकारका उपशम, चारित्रंकी वृद्धि व ज्ञान की निर्मलताके लिए आहारमें प्रवृत्ति करते हैं । क्यों कि मुनिगणोंका एक मात्र ध्येय उत्कृष्ट स्थान जो मोक्ष है उसीकी प्राप्तिका है । वे इहलोक संबंधी सुखको नहीं चाहते हैं ॥ २८ ॥
१ आहारं पचति शिखी दोषानाहारवर्जितः पचति ॥ दोषक्षयेऽपि धातून्पचति च धातुक्षये प्राणान् ।