________________
औषधदानविचार
२७५
-
औषधदानविधानम्
मंगलावरण व प्रतिज्ञा. नत्वा जिनं जिनमुनीनखिलागमज्ञान् । वक्ष्ये मुनींद्रतनुरोगहरी चिकित्साम् ॥ यूषैः कषायखलचूर्णसुकल्कपथ्य
स्तां दोषशांतिकरणैर्यतिनां प्रकुर्यात् ॥ १॥ अर्थ-श्री जिनेंद्र भगवंतको एवं संपूर्णशास्त्रोंके पारगामी मुनीश्वरोंको नमस्कारकर मुनीश्वरोंके शरीर में उत्पन्न होनेवाले रोगोंकी चिकित्साका निरूपण करेंगे। ऋषियोंको निर्दोष औषधिको सेवन करना पडता है, अतः उनकेलिये योग्य यूष, कषाय, खल, चूर्ण, कल्कोंसे शरीरके वात पित्त कफादिक दोषोंकी उपशांति करनी चाहिये ।
उत्कृष्टजैन आधि पूतवचोभिरिष्टधनदानर्मोचयित्वैव यः । सौचित्तीकरणं करोति खलु वैयावृत्य मुक्तं जिन : ॥ पात्राणां विमलौषधैरनुगुणैः पथ्यैः सुखैस्तैर्गदान् ।
भक्त्या वत्सलतागुणेन सुकृती जैनोऽधिकःसन्स च ॥२॥ अर्थ-पात्रों के मनमें संक्लेश परिणाम है उसे भक्तिपूर्ण मृदुवचनोंसे एवं उनके योग्य संयमोपकरण व ज्ञानोपकरणको प्रदान कर, उनके परिणामको निर्मल बनाना उसे वैयावृत्य कहते हैं। पात्रोंको शरीरमें । जो रोग है उनको उनके लिए अनुकूल पथ्य, सुखकर औषधियोंको देकर भक्त व वात्सल्यगुणसे दूर करें। उसीको उत्कृष्ट जैन कह सकते हैं ॥२॥
वात्सल्यगुण भक्तिसंपत्तिरर्थित्वमिष्टोक्तिः सक्रियाविधिः । स्वधर्मस्वसिसौचित्ति- कृतिर्वात्सल्यमूचिरे ॥ ३ ॥