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________________ २७६ दानशासनम् - - - अर्थ-दाताके हृदयमें जो भक्ति है, उदारता है, पुण्यफलापेक्षता है, प्रियवचन है, दान देनेको यथार्थविधि है एवं पात्रोंके हृदयको प्रसन्न करनेकी भावना है, उसे बात्सल्य कहते हैं ॥ ३ ॥ पुत्रस्तातं सुतमिव पिता रोगिणं प्राणकांता । ग्लानां भोप्यनुगुणगणैर्बधुवगैश्च धृत्वा ॥ काश्चित्तरं दधिघृतमिदं ग्राहि निंबूफलेखून् । वैयावृत्यं रचयति सदा रोगिणां योगिनांच ॥ ४ ॥ अर्थ-जिस प्रकार पुत्र पिताकी सेवा करता है, पिता रोगी पुत्रकी परिचर्या करता है, रोगपीडित भार्याकी पति जिस प्रकार अपने बंधुबांधवोंकी सहायतासे रक्षा करता है, इसी प्रकार दही, दूध, घृत, निंबूफल, इक्षु आदि प्रदान करते हुए रोगी व योगियोंकी सेवा शुश्रूषा करें । अर्थात् योगियोंकी रोगावस्थामें हरतरहसे सेवा करनी चाहिये । आहारके समय उनकी प्रकृतिके अनुकूल भोजन व निर्दोष औषध प्रदान करना चाहिये ॥ ४ ॥ आदरगुण. स्वाध्याये स्वाध्यायिनि संयमिनि गुरुषु संघे च । अनतिक्रममौचित्यं कृतयोगः प्राहुरादरं विनयं ॥ ५ ॥ अर्थ-अपने साथी यतियों के साथ, अर्जिकाओं के साथ, गुरुवोंके साथ, संयमियोंके साथ एवं संघके साथ औचित्यको उल्लंघन न करके व्यवहार करना उसे आदर कहते हैं या विनय कहते हैं ॥५॥ यथोचितं संघमवेक्ष्य धार्मिकः करोति तोषं विनयं न जानुचित । स एव मूर्खः स च नैव धार्मिको न च व्रती नो समयी सुदृक् च न ।। अर्थ-जो व्यक्ति संघको देखकर संतुष्ट नहीं होता है एवं संघका विनय नहीं करता है, वहीं मूर्ख है, वह धार्मिक नहीं है।
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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