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शास्त्रदानविचार .
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अर्थ-जिसप्रकार कस्टम महसूलको लेनेवाले अधिकारी उस मार्गसे आनेवाले उत्तम, मध्यम व जघन्य धान्य वस्त्रादि पदार्थोको देखकर महसूल वसूल करते हैं, उसीप्रकार धार्मिक दानी सज्जन भी पात्रोंके भेदको देखकर तदुचित दान देवें ॥ ३० ॥
दानहीनमनुजस्य धनान्यायांति यांति किमिमानि निस्तुजः । वंशहानिरिव पुण्यनाशनं स्यादरण्यकुसुमानि वृथैव ॥ ३१ ॥
अर्थ-जो सज्जन कभी दानक्रिया नहीं करता है, उसको संपत्तिका आना नहीं आना दोनों बराबर है। संपत्ति व्यर्थ ही है। जिस प्रकार पुत्ररहितकी वंशहानि होती है, उसी प्रकार दानरहितकी पुण्यहानि होती है। उसकी संपत्ति अरण्यपुष्पके समान व्यर्थ है।' ३१ ॥
विद्वानोंका अपमान न करें स्याज्जैनेंद्रागांभोनिधिपरिमथनं तद्दिशदूषणं कृत् । तत्स्वाध्यायप्रणाशो जिनगुरुभजकावर्णवादो विरोधः॥ हिंसापायोपदेशो जिनपतिवृषसन्मार्गसम्यग्विशंतम् । घिकृत्याहं प्रवेत्ता बुधपरिभवनं ज्ञानविध्वंसहेतुः ॥३२॥
अर्थ--जिनेंद्र भगवंतके द्वारा प्रतिपादित शास्त्ररूपी समुद्रको मंथन करना, उसके उपदेशकोंका दूषण करना, स्वाध्याय करनेवालोंको अंतराय करना, देव, गुरुवोंकी उपासना करनेवालोंपर आरोप करना व उनसे विरोध करना, हिंसा व मिथ्यात्व आदि पापोंका उपदेश देना, एवं जिनधर्मके मार्गको योग्यरूपसे बतलानेवालोंको धिक्कार कर मैं ही बडा विद्वान् हूं ऐसा समझकर जो विद्वानोंका अपमान करता है वह उसकी क्रिया ज्ञानके नाशके लिए कारण है ॥ ३२ ॥ +
+ जिनोक्तशास्त्रास्वाध्यायशालिनः परिभूय च ॥ स्वाध्यायनाशो मात्सर्याच्छुद्धशानविनाशकृत् ॥