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दनिशासनम्
प्रेम रखनेवाले हैं, जैनियोंको उपकार करनेवाले हैं उनको साधुगण मध्यम पात्र कहते हैं |॥ ८९ ॥
जिन मुनिपदाब्जभृंगा मुनिवचन सुधांबुपानसंतुष्टाः । जैनानुकूलवृत्तास्ते पात्रं मध्यमं ब्रुर्वत्यार्याः ॥ ९० ॥
अर्थ – जिनमुनियोंके चरणरूपी कमलके लिये जो भ्रमरके समान हैं, मुनियोंके वचनरूपी अमृतको पीकर जो संतुष्ट होते हैं, जिनेंद्र के उपदेशके अविरुद्ध आचरण रखनेवाले हैं, उनको सज्जन लोग मध्यम पात्र कहते हैं ॥ ९० ॥
दोषप्रकोपशमना इव भिषजं जैनदोषपिदधानाः । जैनगुणोज्ज्वळ करणास्ते पात्रं मध्यमं ब्रुवत्यार्याः ॥ ९१ ॥
अर्थ --- जिस प्रकार औषधि वातपित्तादिक दोषोंको शमन कर शरीरमें गुणोंकी वृद्धि करती है, उसी प्रकार जो जिनधर्म भक्तोंके दोषों को ढकनेवाले हैं और उनके गुणका उद्योत करनेवाले हैं उनको सज्जन लोग मध्यम पात्र कहते हैं ॥ ९१ ॥
दृष्ट्वा दोषिणमातरं भुवि भिषग्दोषः कृतोऽयं त्वया । मा भैषीर्धृतमामय स्त्यजति ते उक्त्वारुषन्नद्विषन् ॥ दत्वैवौषधमर्थमिष्टमखिलोपायैर्दयालुर्गदम् ।
दोषं मोचयतीह वर्तितजनाः पात्रं तथा मध्यमं ॥ ९२ ॥
अर्थ - जिस प्रकार कोई दयालु वैद्य अपने पास आये हुए दोषी रोगीको देखकर यह कहकर क्रोधित नहीं होता है कि तुमने अमुक दोष किया और न उसके ऊपर द्वेष करता है, प्रत्युत यह कहकर उसे आश्वासन देता है कि तुम घबराओ मत, यह रोग शीघ्र दूर हो जायगा । तदनंतर योग्य औषध व उचित उपायोंद्वारा उस रोगकी चिकित्सा करता है । इसी प्रकार कोई दोषी सज्जनो के पास आवे तो