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पात्रभेदाधिकारः
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उसके प्रति क्रोधित होकर तुमने अमुक दोष किया है, ऐसा कहकर फटकारना नहीं चाहिये और न उसके प्रति द्वेष करना चाहिये । प्रत्युत उसके लिए उचित द्रव्यादिक देकर और संतोष से उसके अंतरंग और बहिरंग दोषको दूर करने के लिए प्रयत्न करना चाहिये । ऐसे लोगों को मध्यमपात्र कहा है ॥ ९२ ॥
सद्धर्मोद्धरणक्रियातिचतुरा योगींद्र विद्वज्जना | भूपा धार्मिकसद्विवेक सुजना यत्रागतास्तद्वचः ॥ श्रुत्वागत्य विनम्य साधुविनयं कृत्वा क्षणे चिन्वते । बुद्धिश्री सुकृतानि ये बुधजना भव्यास्त एवोत्तमाः ॥९३॥
अर्थ - सर्व कल्याणकारक जिनधर्मके उद्धार करने में जो चतुर हैं ऐसे योगींद्र, विद्वान्, राजा, धार्मिक, भेदविज्ञानी सृजन आदि जहां आवे उस समय उनके वचनको सुनते ही अपने स्थानसे उठकर उन के पास जाकर जो उन्हें नमस्कार करते हैं और विनय सेवा आदि कर बुद्धि, संपत्ति, पुण्य आदि कमाते हैं वे ही उत्तम विद्वान् हैं और वे ही भव्य हैं ॥ ९३ ॥
एते यत्र वसंति तच्च विमलं तीर्थ स पुण्यापगा - । पुरोत्पत्तिकुळाचछौघतिमिरध्वंस्यर्क पूर्वाचलः || पूतं पुण्यकरं भयापहरणं व्याध्यादिनिर्णाशनं । सर्वे जैनजनाश्च तत्तदखिलांस्तान्भावयेयुस्सदा ॥ ९४ ॥ अर्थ - उपर्युक्त प्रकारके मुनींद्र जहांपर वास करते हैं वह निर्मल तीर्थ है । वह पुण्यरूपी नदीके उत्पन्न होनेके लिये कुलाचल पर्वत है, पापरूपी अंधकार नाश करनेवाले सूर्यकी उत्पत्तिकेलिये उदयाचल के समान हैं, पवित्र है, पुण्यकर है, सर्वभय को दूर करनेवाला है । आधिव्याधि को नाश करनेवाले हैं । इसलिये सर्व धर्मभक्त वैसे मुनींद्रोंकी उपासना व भावना करते हैं ॥ ९४