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पात्रभेदाधिकारः
चाबुक है । भ्रू बाण है | कटाक्ष भालेके समान है । मृदुवचन विष है । दोनों स्तन पुण्यको गिरानेवाले गेंद हैं । उनकी सुंदर चाल दूषित विषका अस्त्र है । वे मंदहास्य से सबको वश में कर लेती हैं। स्त्रियोंकी नीति अमोघ है । उसे कौन पहिचान सकता है ? ॥ ८७ ॥
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दुर्गत्याविष्टजीवाः स्वकृत सकलदुः कर्मरूपं प्रपंचं | जानतो शेषकर्मप्रभव फळभुजः सर्वनिर्वगभाजः ॥ तत्कर्म क्षीयतेऽतो युवतिजनवशादूर्धते कर्म सर्वं । स्त्रीसंपर्काद्वरं दुर्गतिरपि यमिना योषितो दूरवर्ष्याः ॥८८॥
अर्थ — जो जीव अनेक प्रकारकी दुर्गतियोंमें भ्रमण करते हुए अपने किए हुए कर्मो के सर्व विषयको जानते हुए व उसके फलको अन्नुभव करते हुए वैराग्यको प्राप्त होजाते हैं, दिगंबर दीक्षा आदि लेते हैं, फिर भी यदि वे स्त्रियोंके फंदे में पड जाते हैं तो उनका वह शुभकर्म नष्ट होकर पापकी वृद्धि होती है । स्त्रियोंके संसर्गसे नरक भी कई गुने अच्छा है । इसलिए आत्मकल्याणेच्छु संयमियोंको चाहिये कि वे स्त्रियोंको कोसों दूर छोडें, तभी उनका हित हो सकता 11 66 11
मध्यम पात्र.
साणुव्रताः शुद्धदृशोऽकषायिणः । स्वस्त्रीप्रहृष्टाः सदयाः शुभाशयाः ॥ साधुप्रियाः जैनजनोपकारिण- । स्ते साधुभिर्मध्यम पात्रमीरितं ॥ ८९ ॥
अर्थ - जो अणुव्रतोंसे युक्त हैं, शुद्धसम्यग्दृष्टि हैं, मंद कषायी हैं, स्वस्त्रीसंतुष्ट हैं, दयासहित हैं, शुभ भावोंकर युक्त हैं, गुरुजनों में
संतुष्टो यः स्वदारेषु पंचाणुव्रतपालकः । सम्यग्दृष्टिगुरौ भक्तः स पात्रं मध्यमं भवेत् ॥