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दानशासनम्
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इसमें असली क्षमा करनेवालोंका मिलना बहुत कठिन है। सबके सब जो कालदोषके जालमें फंसे हुए हैं उनका मंगल कैसे हो सकता है या वे क्या शुभ कर सकते हैं ?'॥ ८० ॥
क्रोधः स्वर्गगति हंति कुरुते नारकी गति ।
सुदृग्बंधुविभूत्यायुरभिमानादिकं क्षयेत् ॥ ८१ ॥ अर्थ-क्रोवकषाय मनुष्य को स्वर्ग नहीं जाने देता है, नरक गतिका बंध सरलतया करता है। वह सम्यग्दर्शन, बंधु, ऐश्वर्य, आयु, अभिमान आदिका सर्व नाश करता है |॥ ८१ ॥
स्त्रीविडंबनमाह भूकांतप्रियधीरवीरनृपते धर्मार्जितश्रीपते । सम्यग्धर्मगुणच्युतः क्षपयति प्राणान चित्रं शरः ॥ स्त्रीपुण्याप्यहमेव भीरुरबला धीरा दयालुश्च मे ।
सम्यग्धर्मगुणान्वितोक्षिकणयस्त्वामेव चाकर्षति ॥८२॥ अर्थ--उत्तम धनुष्यकी डोरीसे छूटा हुआ बाण प्राणोंको नष्ट करता है इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है, वैसे उत्तम क्षमादिधर्म और निःशंकादि गुणोंसे रहित ऐसा स्त्रीका रागद्वेष उत्पन्न करनेवाला कटाक्ष प्राणोंको हरता है । हे पृथ्वीपति, प्रिय धीर वीर राजन् ! तुम अपने मनमें निश्चित समझो। वेश्या और व्यभिचारिणी स्त्रियोंके कटाक्ष पुरुषको धर्म और गुणोसें भ्रष्ट करके प्राणरहित करते हैं। परंतु जो स्त्री धीर दयालु, अधर्म भी6 और पवित्र विचारवाली है उसके नेत्रकट क्ष उत्तम धर्म और गुणोंसे युक्त होनेसे धर्माचरणसे संपत्तिको प्राप्त करनेवाले हे राजन् ! तुमको वे आकर्षण करते है । अर्थात् है राजन् ! पवित्र साध्वी आर्यिका वगैरह व्रतिक स्त्रियां प्रसन्न नेत्रोंसे आपको देखती हैं। उनके नेत्रोमें कामाविकार तिलमात्र भी रहता नहीं