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पात्रभेदाधिकारः
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है। और ऐसे पवित्र नेत्रोंसे देखनेपर हे राजन् ! तुम्हारा हित ही होता है॥ ८२ ॥
षट्त्रिंशद्गुणवत्प्रफुल्लवदानांभोजेक्षणाद्योषितां । पंकेनोपमसप्तविंशतिगुणोरोजद्वयप्रेक्षणात् ।। कामास्त्रोपमयोगिचित्तलयकृत्तौरुषसंदर्शनात् । पूर्वोपार्जितपुण्यसंततिरहो निर्मूलमुन्मूलितः ॥ ८३ ॥ अर्थ-छत्तीस गुणोंसे युक्त ऐसे प्रसन्न मुखकालवाली स्त्रीको चावसे देखनेसे, सत्ताईस गुणोंसे युक्त कमलसदृश दो स्तनोंको देखने से स्त्रियोंकी कामास्त्रसदृश भोंहे योगिजन के चित्तको विकृत कर देती हैं, तब आश्चर्य है कि पूर्वोपार्जित पुण्यकर्मका समूह एकदम निर्मूल नष्ट होता है ॥ ८३ ॥
स्त्रीरूपालोकशिख्यन्तरनिहिततनुं मत्तयाविष्टचित्तं । लावण्यांभोनिमग्नं वचनभुजगदष्टं लसम्मोहपाशैः ॥ बद्धांगं दुर्विकारस्मरणरचितमूच्योपविद्धाखिलांग ।
लोकं कामाग्निदग्धं रिपरिव भुवने पीडयत्यन्वहं स्त्री॥ अर्थ-जो स्त्रीरूपरूपी अग्निके मध्यमें अपने शरीर को रख चुका है और मत्ता स्त्रीके विषयमें अपने चित्तमें सदा विचार करता रहता है, सुंदरतारूपी समुद्र के बीच में डूबा है, स्त्रियोंके वचनरूपी सर्पसे काटा गया है, मोहरूपी पाशसे बांधा गया है, और अनेक प्रकार के दुर्विकारोंके स्मरणसे जिसे सारे शरीरमें सूईके समूहसे चुभने के समान वेदना होती है, वह कामरूपी अग्निसे दग्ध है । यह स्त्री मनुष्य को शत्रुओंके समान दुःख देती है ।। ८४ ॥
क्ष्वेडं हत्यहिनं यथाशु गरुडध्यानं विधायात्मन-। श्चितापं हरतीव मातरुणीध्यानं सुपुण्यं हरेत् ॥ ..