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दानशाला लक्षण
शिश्वांदोले स्थिते पात्रचित्ते विण्मूत्रसंस्मृतिः ॥'
स्यात्तयैव तयोरंतरायः पुण्यश्रियोलयः ॥ ३२ ॥ अर्थ-दानशालामें या बाहर बच्चोंको सुलानेका झूला हो तो पात्रों को उसे देखकर मल, मूत्रोंका स्मरण आजाता है, जो कि आधारमें अंतरायका कारण है । आहारमें अंतराय होनेसे दाता व पात्र दोनोंकी पुण्यलक्ष्मी नष्ट होजाती है ॥ ३२ ॥
तृणावृतेऽत्र सस्यानि वर्दते किं फलंति किं ? नीचोच्छिष्टेऽङ्गणे गेहे पुण्यायुःश्रीतुजस्तथा ॥ ३३ ॥ .
अर्थ-जिस प्रकार बहुतसे घास फूम वगैरहसे युक्त खेतमें सस्यकी वृद्धि नहीं होती है, उसी प्रकार मल, मूत्र उच्छिष्टादिसे युक्त अंगण, पाकगृह वगैरह जहां हो उस घरमें संपत्ति व संतानोंकी वृद्धि नहीं होती और न पुण्य व आयुकी वृद्धि होती है ॥ ३३॥
मिथ्याङ्नीचविण्मूगोच्छिष्टमिश्रेऽङ्गणे गृहे ॥ ..
क्लिश्यते श्री सपत्नीव क्षीयते दैन्यमेधते ॥ ३४ ॥ - अर्थ--जिस घरमें मिथ्यादृष्टि व नीचोंका संसर्ग हो, मलमूत्र, उच्छिष्ट आदिसे युक्त अंगण हो, उस घरमें संपत्ति सवतके समान खिन होती है, एवं नाशको पाती है । दीनता बढती जाती है ॥ ३४ ॥
बहु व्ययंति पुत्राय कन्यादाने कुलर्द्धये ॥ भिन्नगेहं न कुर्वति मुनिभक्त्यै वृषर्द्धये ॥ ३५ ॥ अर्थ-संसारमें अपने पुत्रोंके लिए, कन्यादान के लिए, और भी संसारवर्द्धन कार्यके लिए बहुतसे द्रव्यका व्यय करते हैं । परंतु जिससे धर्मवृद्धि होती है ऐसे मुनिदानके लिए सर्वदोषरहित भिन्न घरका निर्माण नहीं करते हैं ॥ ३५॥
क्षेत्रे सर्वाणि धान्यानि वपंतः कृषिका इच । जैनाः पृथग्गृहेष्वन्नदानं कुरुत सर्वदा ॥ ३६ ॥