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दानशासनम्
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अर्थ-जिस प्रकार किसान लोग गोबर आदिसे संस्कृत भिन खेतोंमें भिन्न २ धान्यको बोते हैं, उसी प्रकार होम विधानादिसे संस्कृत दानशालामें ही जैन आहारदान देवें । यहां आहारदानके लिए पृथक दानशालाके निर्माण का यही अर्थ है कि वह शाला अच्छी तरह संस्कृत होना चाहिये । मलमूत्र उच्छिष्ट आदिका संसर्ग नहीं होना चाहिए एवं खास बात यह है कि उसमें मिथ्यादृष्टि भोजन नहीं करें, सम्यग्दृष्टि बतिक ही भोजन करें, ऐसे घरमें ही मुनियोंको दान देना उचित है । ॥ ३६॥
मतं समस्तैऋषिभिर्यथाहतैः । प्रभासुरात्मावनदानशासनं ॥ मुदे सतां पुण्य धनं समर्जितुं ।
धनादि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ॥ ३७॥ अर्थ- समस्त आहेत ऋषियोंके शासनके अनुसार यह दानशासन प्रतिपादित है । इसलिए पुण्यधनको कमानेकी इच्छा रखनेवाले श्रावक उत्तम पात्रोंको देखकर उनके संयमोपयोगी धनादिक द्रव्योंको विचार कर दान देवें ॥ ३७॥
इति दानशालाविधिः।