________________
११४
दानशासनम्
दानशालाकी पवित्रता. मुनिभुक्तिगृहेऽन्येषां भोजने यदि तत्फलं ॥
कुण्डबद्भाति तद्रक्षेद्गृहं स्वगृहवत्सदा ॥ २८ ॥ अर्थ-मुनियोंको आहार देने योग्य भोजनशाला में उनके आहारवेलाके पहिले किसीको भोजन नहीं कराना चाहिये, यदि करावे तो दानका फल धान्यके भूसाके समान व्यर्थ जाता है । इसलिये उस घरको अपने घर ( स्त्री ) के समान रक्षण करना चाहिये ॥ २८ ॥
यत्यादिभुक्त्यगारेस्मिन् कृतान्यैर्भुक्तिरेव चेत् ॥
यावदानं कृतं तावनष्टं भिन्नतटाकवत् ॥ २९ ॥ अर्थ-मुनियोंको आहार दान देने योग्य दानशालामें यदि उनको आहार देनेके पहिले किसीने भोजन किया तो उस दातारने जितना दान दिया हो वह सब व्यर्थ जाता है, जिसप्रकार तालावके फूटनेपर पानी चला जाता हो ॥ २९ ॥ ... यत्यादिभुक्त्यगारे विण्मूत्रलिप्तशिशौ स्थिते ।..
रोगः पुग्यवतो मृत्युरपुण्यस्य शिशोभवेत् ॥ ३० ॥ अर्थ-मुनियों को दान देने योग्य पवित्र दानशालामें मलमूत्रसे लिप्त यदि बालक हो तो उस बालकका अनिष्ट होता है। यदि वह बालक पुण्यवान् हो तो रोगी होता है, यदि पुण्यहीन हो तो मरण प्राप्त करता है ॥ ३० ॥
यत्यादिभुक्त्यगारे विण्मूत्रवासस्थितियदि ॥ - रोगो भवेच्छिशोस्तस्यां सत्पुत्रोऽपि न जायते ॥ ३१ ॥ ___ अर्थ-पात्रदान देनेयोग्य दानशालामें यदि मलमूत्र से युक्त कपडा वगैरह हो तो बालक रोगी हो जाता है, इतना ही नहीं उस माताके गर्भ में फिर कुलवर्धक सत्पुत्रोंकी उत्पत्ति नहीं होती ॥ ३१ ॥