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दानशासनम्
अर्थ - जो त्रिकरण शुद्धिपूर्वक उत्तम पात्रोंकी सेवा करता है उसके घरमें पंचाश्चर्य दृष्टि होती है यह शास्त्रसिद्ध विषय है । अतएव सदा गुरुसेवा करनी चाहिये ॥ ८० ॥
बुधसमये चतुर्थे रत्नाश्रिते शुक्तिपुटे सुपात्रे । दत्ता सुवार्जा इव सति मुक्तास्ते दातृलोकास्त किमत्र चित्रं ॥ अर्थ – जिसप्रकार रत्नके आश्रयभूत समुद्र में स्वाति नक्षत्र में शरद् ऋतु में सीपके पुटमें पडे हुए जलबिंदु मुक्ता ( मोती ) होते हैं, उसी प्रकार रत्नत्रयके आश्रयभूत धर्मरूपी समुद्र में चतुर्थकालमें उत्तम पात्रमें उत्तम दातावोंके द्वारा दिये गये आहारोंसे वे दाता मुक्त होते हैं इसमें आश्चर्य की क्या बात है ॥ ८१ ॥
पुण्यावान्दाता
वित्तं नास्ति तदस्ति चेदपि मनो नो तत्तदस्तीति चे- । नास्तीषत्सुसहायता तदपि तत्सा चास्ति चेन्नास्ति यत् ॥ पात्रं तत्तदपीह सा तदपि चेत्संतीति यस्यानिशं ॥ क्षिप्रं भावसमुद्रपारगतवानाहुस्तमेकं बुधाः ॥ ८२ ॥ अर्थ-लोकमें दाताके लिए उपयुक्त सभी परिवारोंका मिलना बडा कठिन है । दाताको यदि दान देनेकी उत्कट भावना हो तो उसकी पूर्ति केलिए कहीं धनका अभाव है, कदाचित् धन हो तो मनका अभाव रहता है । मन और धन दोनों रहनेपर उसे दूसरोंकी सहायता नहीं मिलती । कदाचित् धन हो, मन हो, दूसरोंकी सहायता भी हो तो उत्तमपात्र नहीं मिलते हैं । इसप्रकार कुछ न कुछ न्यूनता रहती है । ये सभी बातें जिस दाताको एक साथ मिलती हैं वह सचमुच में धन्य है । उसे बुद्धिमान लोग संसारसागरके बिलकुल तीर में पहुंचा हुआ कहते हैं ॥ ८२ ॥