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चतुर्विधदाननिरूपण
चतुर्विधदाननिरूपण अभयाहारभैषज्यश्रुतभेदाच्चतुर्विधं ।
दानं सुधीभिरित्युक्तं भक्तिशक्तिसमाश्रितम् ॥ १ ॥ अर्थ-महर्षियोंके द्वारा दान अभयदान, आहारदान, औषधदान और शास्त्रदानके भेदसे चारप्रकारसे वर्णित है। चारों प्रकारके दान पात्रोंके प्रति भक्ति और अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिये ॥१॥
चतुर्णामिह दातृणां वरेण्योऽभयदानवान् ।
तस्मादादावह वक्ष्ये तस्य दानस्य लक्षणं ॥२॥ अर्थ--चारों प्रकारके दान देनवाले दातावो में अभयदान देनेवाला श्रेष्ठ कहलाता है । इसलिये आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं कि सबसे पहिले उसी अभयदानका लक्षण कहेंगे ॥ २ ॥
भीत्वागत्य पलाय्य दुष्टमृगचौरामित्रभूपादिभिः । स्वावासं स्वपुरं स्वदेशमबलान्मान्स्वपृष्ठं गतान् ॥ मा भैषीरहमप्यवामि भवतः कस्मै ममांगावधे- | नों यच्छामि किमस्ति चेद्भयमितो निर्यापयिष्याम्यहम् ॥३॥
अर्थ---जो कोई व्यक्ति परराज्यसे या दूसरे स्थानसे डरकर भोगकर आया हो, दुष्ट पशु और चोरों के द्वारा, राजाके द्वारा, या शत्रुवोंके द्वारा सताया हुआ हो एवं अपने नगरमें, अपने घरमें आगया हो उसको धैर्य बंधाकर कहना कि " तुम डरो मत, तुम्हारी रक्षा मैं करूंगा, जबतक मेरा शरीर रहेगा तुम्हे किसीके द्वारा कष्ट नहीं होने दूंगा, फिर भी यदि तुम्हारे लिये कोई भय होतो मैं उनको दूर करूंगा इस प्रकार आश्वासन देकर अभयदान पालना चाहिये ॥३॥ .., यदैकमेकदा जीवं त्रायमाणः प्रपूज्यते ।
न तदा सर्वदा सर्व त्रायमाणः कथं बुधैः ॥ ४ ॥