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शास्त्रदानविवार
विना शुद्धिके दानपूजा व्यर्थ है नष्टाग्नेः प्रबलाहारभुक्त्या तीव्रा गदा यथा ।
शुदि विना दानपूजास्तस्य येन कृताः क्षयाः॥ ४७ ॥ अर्थ-उदराग्निके नष्ट होनेपर गरिष्ठ आहारके सेवन करनेसे तीव्ररोगकी उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार मन वचन व कायकी शुदिके विना दानपूजा करना व्यर्थ है,उससे अनेक अनर्थ होते हैं॥४७॥
शास्त्रादिके प्रति उदासीन न होवें. चक्रे भाग्यलयं त्रियां तुगजनि देवेऽपि धर्मे गुरौ। दौर्गत्यं द्रविणार्जनेषु विलयं लाभस्य मूलस्य च ॥ शास्त्रे शास्त्रिाण पुस्तकेऽपि पठति व्याख्यातरि श्रोतरि । प्रेक्षानाशमिहैव तस्य यदुदासीनं करोतीति यः ॥ ४८ ॥ अर्थ-यदि राजाने अपने सेनाचक्रके संरक्षणमें उदासीनता की तो उसका भाग्य नष्ट होता है, अपनी स्त्रीमें मनुष्यने उपेक्षा की तो पुत्रोत्पत्ति नहीं हो सकती, देव, धर्म व गुरुवोंके प्रति अनादर किया तो दुर्गतिकी प्राप्ति होती है । धनके कमानेमें आलस्य किया तो लाभ व मुद्दल दोनोंका नाश होता है, इसी प्रकार शास्त्र, शास्त्री, पुस्तक, पढनेवाले, व्याख्यान करनेवाले, श्रोताके प्रति उदासीनता धारण करें तो इस लोकमें ही उसका ज्ञान नष्ट होता है ॥ ४८ ॥
शास्त्रपठननिषिद्धस्थान मूतकोच्छिष्टविण्मत्रे नीचसंवेष्टिते स्थले ।
शास्त्राणि पठतां नित्यं मंदबुद्धिः प्रजायते ॥ ४९ ॥ अर्थ-जन्ममरण सूतकीसे व उच्छिष्टसे स्पृष्ट स्थानमें, मलमूत्रसे युक्तस्थानमें एवं चांडालादि नीच कुलोत्पन्नोंसे युक्तस्थानमें जो शास्त्र बांचता है वह मंदबुद्धि होता है ॥ ४९ ॥