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दानशासनम्
अर्थ-जो सज्जन शास्त्र व शास्त्र रखनेकी पेटीको मलिनवस्त्र व सोनेकी चटाई, दरी आदिसे ढकते हैं उनका ज्ञानसूर्य बहुत जल्दी अस्त होता है अर्थात् बुद्धि भ्रष्ट होती है ॥ ३९ ॥
अविनयफल स्वासनाधःस्थले पादाधःस्थले भूतलेऽशुचौ । कटादौ पुस्तकन्यासादस्तमेति चिदंशुमान् ॥ १० ॥ अर्थ-आगमोंको अपने बैठने के आसन के नीचे, पैरके नीचे, अशुचि भूमिपर, चटाई आदिपर रखनेसे उनका अविनय होता है । उस अविनयीका ज्ञानसूर्य अस्त होता है ॥ ४० ॥
हसंति मूढाः परिहासयंति । प्रज्ञा न चाज्ञाः स्वकृतोऽनुयोगः ॥ ब्रुवंति नाग्रे च वृथा स्वदृष्टि
ज्ञानावृति ते स्वयमाप्नुवंति ॥ ४१॥ अर्थ --अज्ञानी जीव अपनी कृतिका फल आगे क्या होगा इन बातोंको विचार नहीं करते हैं । कोई अपने हाथसे गलती होनेपर भी हम बुद्धिमान् ही हैं, अज्ञ नहीं है, युक्तिशास्त्राविरोधि परमागमकी प्रशंसा नहीं करते हैं, अपितु अनेक प्रकारकी कल्पना कर उसकी हसी उडाते हैं। दूसरोंके द्वारा उस परमागमकी हसी कराते हैं, वे ज्ञानावरणकर्मके द्वारा बद्ध होते हैं ॥ ४१ ॥
साधुजनोंकी परोक्षमें निंदा न करें ये शंसति नमंति साध्धिव पुरो भक्त्या भवेयुजडाः । पश्चाज्जैनजनास्त्रिरत्नसहितान्कुर्वत्युपालंभनम् ॥ शून्यग्रामनिविष्टकाष्ठनिगलपक्षिप्तपादो यथा । शंसन्नद्य नुवन्नमन्करशिरो दैन्यं ब्रुवन्मूढधीः ॥ ४२ ॥ अर्थ-जो व्याक्त सामने साधुजनोंको देखकर प्रशंसा करता