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पात्रभेदाधिकारः
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अच्छी तरह विचार कर अपने गुरुके पासमें निश्चल चित्तसे रहो, इसीमें तुम्हारा कल्याण है ॥ १७॥
स्यात्पंचवतसाळपंचकवृते देहेऽघराजावृते । दुर्भावाः खलवृत्तयो रिपुनृपं दृष्ट्वा पतित्वा ततः ॥ ब्रूयुस्ते शिथिलाः पतंति तरुणीमत्तेभहक्स्पृष्टितो।
नान्तःशुद्धिरसंवृतिश्च न बलं साध्यस्त्वयायं ध्रुवं ॥१८॥ अर्थ-हे वत्स ! अभी पंचमहाव्रतरूपी मजबूत परकोटेको देखकर पापराज दुर्भावरूपी सैन्यों के साथ तुमसे युद्ध करने के लिए समर्थ नहीं, वह शक्तिहीन होगया है । परंतु ध्यान रहे, जब स्त्रीरूपी मदोन्मत्त हार्थिनीकी दृष्टि इन परकोटोंपर लग जाय तो वे एकदम शिथिल होकर पड जायेंगे । फिर अंतरंगशुद्धि का रक्षण, व्रत व बल आदि कोई भी बात तुमसे साध्य नहीं हो सकेगी, यह निश्चित
उच्चैरध्ययनं सगानपठनं मुंचेबुधी हास्यतां । स्वावासस्थितिमंगवीक्षणसहालापांगसंस्पर्शनं ॥ स्त्रीभिस्तत्सुतळालनं बहुपुरो जायापतिप्रस्तुति । होरामंत्रनिमित्तभेषजचितद्रव्यांगसंपोषणं ॥१९॥ अर्थ---गुरूके सामने चिल्लाकर पढना, गाकर पढना यह उचित नहीं है । एवं स्त्रियोंके आवासमें रहना, उनके सुंदर अंगोंको देखना, उनके साथ संभाषण व अंगस्पर्शन करना, उन स्त्रियोंके पुत्रोंको खिलाना, स्त्रियों की प्रशंसा करना, ज्योतिष, मंत्र, औषधि इत्यादि द्रव्य के साधनोंसे उनका पोषण करना यह सब बुद्धिमान मुनियोंके द्वारा वर्ण्य है ॥ १९ ॥
स्त्रीशय्यायां न स्वपेत्तां स्पृशेना- . श्वी याश्वानां सा स्मरोद्दीप्तिकी ।