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चतुर्विधदाननिरूपण
शून्या तु सा स्वामिजनद्वये त- । न्नैष्फल्यमायांति नृपः प्रजोर्व्यः ॥ १५६ ॥
अर्थ – आजकलकी परिस्थिति यह हुई है जमीन का कर तो हुआ अधिक परंतु जमीनमें उत्पन्न तो होता है कम, इसी प्रकार सेवकोंसे सेवा तो अधिक लेने लगे । परंतु उन्हे वेतन तो कम देते हैं । इस प्रकारकी वृत्तिसे उन राजा प्रजाओं में दिनपर दिन शून्यता आती जाती है । और इससे उन राजा प्रजा व भूमिकी संपत्ति इत्यादि सब निष्फI लताको प्राप्त होते हैं ॥ १५६ ॥
विमाननात्पूज्यसतां वृषक्षयो । भवेत्स्वविश्वासवतां विघातनात् ।
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स्वतेजसो हानिरनीकतेजसां ॥
प्रजाविलोपश्च निजायुषः श्रियः ॥ १५७ ॥
अर्थ- जो राजा अपने स्वार्थ के लिए अपने राज्यमें रहनेवाले गुणवान् वैद्य, ज्योतिषी आदि सत्पुरुषोंको पीडा देकर अपने राज्यसे भगाता हो उसके धर्मकी क्षति होती है । अपने विश्वास के मंत्री पुरोहित बंधु इत्यादि के साथ विश्वासघात करनेसे अपने तेजका नाश होता है, इतनाही नहीं उसके सेनाका भी तेज नष्ट होता है । एवं उसके प्रजाका लोप होता है, स्वतः राजा के आयु व संपत्तिका भी क्षय होता है 1 इसलिये राजाको उचित है कि प्रजावोंको कभी कष्ट न पहुंचावें ॥ १५७
नात्मेवाजीविते देहे सहते रोगपीडनं ।
निस्वो नाजीवितः सेवाविधानं भूपतेर्मनाक ॥ १५८ ॥
अर्थ - जिसप्रकार शरीरकी आयु बाकी न रद्दनेपर जीव रोगपीडा न सहता हुआ इस शरीरको छोडकर चला जाता है इसी प्रकार जिस सेवक के सेवाके लिए कोई प्रतिफल न मिलता हो वह राजाकी सेवा कभी नहीं कर सकता है ॥ १५५ ॥