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दानशासनम्
अन्यको फसाते हैं एवं नीच हैं। उन लोगोंने शुद्धवंशमें जन्म लेकरभी • मोक्षमार्गको मलिनही किया है ऐसा समझना चाहिये ॥ १२९ ॥
सगोत्रनिंदा जिनयोगिनिंदां करोति यस्तस्य च सर्वदा हि । इहैव वक्त्रे क्रिमिगृढदुव्रणा
भवंति चाग्रे निरयं प्रयाति ॥ १३० ॥ अर्थ- जो मनुष्य उत्तम गोत्र व गोत्रजोंकी निंदा करते हैं एवं जैन मुनीश्वरोंकी निंदा करते हैं इस जन्ममें ही उनके मुखमें कीडे वगैरह पडते हैं, बहुत ज्यादा फोडा वगैरह उठते हैं, एवं आगेके भवमें नियमसे नरक जाते हैं ॥ १३० ॥
भूत्वा हिंसातुरश्चतास बक इव यो मानवी जैनदीक्षां । धृत्वा भंगानि कृत्वा यदविकलतपास्तहि निंदन्शपन्सः ॥ दासीभर्तुर्द्विजस्योत्तरजनिपसुतोऽशेषविद्याप्रवीण- | स्तदेशाधीशकुष्ठप्रशमनकरणालब्धघनत्रयैश्यः ॥ १३१ ॥ अर्थ-कोई मनुष्य हिंसा करने में तत्पर ऐसे बकके समान जैनदीक्षा ग्रहण करके उसको दोष लगाता है तथा जो निर्दोष दीक्षाको पालनेवाले साधुगण की निंदा करके गालियां देता है। दासीका पति ऐसे द्विजसे उत्पन्न हुआ वह अपने देशके राजाका कुष्ठरोग नष्ट करके जो उसके द्वारा थोडासा ऐश्वर्य मिला है उसका भोग लेता है। अर्थात् कपटसे दीक्षा लेनेवाले पुरुष हीनाचरण करते हुए मुनिधर्म से भ्रष्ट होते हैं ॥ १३१ ॥
यः कामार्थी धनार्थी परधनहरणोपायविन्मित्रतार्थी । चौर्यार्थी धूलिभस्माद्युपकरणलसद्धगरीकादिविद्भिः ॥ स्नेहं कृत्वा गृहीत्वा तदुपकरणमर्थाढ्यगेहं विचार्य । स्वेष्टार्थ तैर्धनीव व्यवहरति स वेश्यांगसौख्याभिलाषी ॥