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चतुर्विधदाननिरूपण
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पन्हि विनैव बहुचर्वितवानवान्स्या- । त्पीडां च वाथ मरणं खलु याति जीवः ॥ १२७ ॥ अर्थ-जिस प्रकार डोंबारी खिलौनेका खेल विना मनके होनेसे उसका कोई उपयोग नहीं इसी प्रकार भावरहित कायकी चेष्टा आत्मकल्याणके लिए कोई उपयोगी नहीं हैं। उदरमें अग्नि तेज न हो फिर पौष्टिक आहारोंको ग्रहण करे तो वह रोगादिबाधाको उत्पन्न करने वाला है एवं कदाचित् मरणका भी कारण बन सकेगा । इसलिये आत्माका परिणाम शुभाशुभक्रियामें मुख्य आवश्यक है ॥ १२७ ॥
ने व्ययत्यनिशं यो ना धर्मार्थ धर्मजश्रियं । तस्य नश्यति सा शीघ्रं कृष्णपक्षहिमांशुवत् ॥ १२८ ॥ अर्थ-जो व्यक्ति धर्मसे उत्पन्न धनको धर्मके लिए खर्च नहीं करता है उसका धन कृष्णपक्षके चन्द्रमाके समान शीघ्र नष्ट होता है । इसलिये धर्मसे उत्पन्न धनको धर्मकार्यमें ही उपयोगमें लाना चाहिये ॥ १२८ ॥
शप्यंतोऽस्मिन्वृषकुलगुरून्दूषयंतो बभूवु- । स्संतो दासीरतिमुखभुजस्तज्जनीस्थानभाजः ॥ रत्नस्वर्णाचितधनकृते वंचका वात्र नीचाः ।
शुद्धो वंशोप्ययमिति चितो मुक्तिमार्गो हतस्तैः ॥१२९॥ अर्थ-जो लोग इस लोकमें धर्म, धर्मात्मा, उत्तमकुलज, गुरु इत्यादि सज्जनोंकी निंदा करते हैं, व साधुओंके प्रति उदासीन भावको रखते हैं, सदा दासीओंके साथ रति करते हैं । रत्न व सुवर्ण के लिये
१ यथा यथा निस्वनृपः स्वकीयान् ।। कायस्थसंख्यामिति हि प्रसा ॥ प्रपीड्य वित्तान्यपहृत्य जीवे ॥ तथा तथा भाग्यलयं करोति ।।