________________
दानशासनम्
आंखोंके भएको चढाना, कामविकारसे युक्त होना, ये सब जिन मंदिरमें निषिद्ध हैं अर्थात् ऐसी क्रियायें मंदिर में नहीं करनी चाहिये ॥ ७८ ॥
मात्सर्य च मदाष्टकं च शपनं निर्भत्सनं विकृति । निंदा दोषकरोक्तिभोजनविधि दुःकामशास्त्रश्रुति । खटांदोलनसंस्थितं च शयनं निद्रां च तंद्रां कलिं ॥
रागद्वेषमनारतं स सुकृती चैत्यालये वर्जयेत् ॥ ७९ ॥ अर्थ-मत्सरभाव, अष्टमद, दूसरोंको शाप देना, क्रोधभरे वचन कहना, धिक्कार देना, निंदा करना, दोषपूर्ण पचन कहना, भोजन करना, कामशास्त्रादिकका सुनना, खाट, झूला वगैरहमें बैठना, सोना, नींद लेना, आलस करना, रागद्वेष करना एवं पूजा आदिको देखनेमें चित्त लगाना यह सब जिनमंदिरमें वर्ण्य है ॥ ७९ ॥
हास्यं नर्मपदप्रसारणकरस्फोटोगसंस्कारता । भ्याख्यानं करताडनं क्षुतमसत्यालापनिष्ठीवनं ॥ जुभं कर्दनगात्रभंजनमवष्टंभं सदा पर्दनम् । सर्व श्रीजिनसाधुसमनि नृपास्थाने यथा वर्जयेत् ॥८० अर्थ-हास्य करना, सरस कथालाप करना, पैर फैलाना, हाथको मोडकर छुटकी निकालना, शरीरका संस्कार करना स्त्रीपुरुषोंके गुप्त रहस्यको प्रकट करना, ताली बजाना छींकना, असत्य बोलना, थूकना, जंभाई लेना, शरीरको तोडना, लेटना, पादना आदि अयोग्य क्रियायें राजाके आस्थान में जिस प्रकार निषिद्ध है उसी प्रकार जिन मंदिर व साधुवोंके स्थानमें ये क्रयायें निषिद्ध हैं ॥ ८ ॥