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दानफलविचार
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जीवकेलिए पापकी वृद्धि नहीं होती है । वह अपने सम्यक्त्वसे पापके नाशके लिए ही प्रयत्न करता है। इसलिए हे जीव ! यदि तुम्हे लोकविजयी होना हो तो दुष्ट कार्योंमें उद्योग मत कर । जैनधर्म के धारण करनेवाले जीवको कोई हानि नहीं पहुंचा सकता । जिस प्रकार राजा अपने सामने खड़े हुए निरपराधी कैदीके संबंध में विचार किया करता है कि यह निर्दोषी है, इसे मैं कैसे मारूं, किस प्रकार दंड दूं । इसी प्रकार जिनधर्मको धारण करनेवाले सदृष्टि जीवके प्रति हिंसाभावको धारण नहीं कर सकता है। क्यों कि उससे दूसरों के प्रति कष्टदायक व्यवहार नहीं हुआ करता है ॥ २०३ ।।
न पश्येन्नस्मरेदन्यकलत्रमिव न स्पृशेत् ।,
जैनत्वमपि दत्तार्थ न स्मर स्पृश पश्य न । २०४ ॥ अर्थ-जिसप्रकार शीलवान् पुरुषों का कर्तव्य है कि उनको अन्य स्त्रियोंको कामविकारसे नहीं देखना चाहिये ( गुणानुरागसे देख सकते हैं ) कामविकारसे स्मरण नहीं करना चाहिये ( गुणानुरागसे स्मरणकर सकते हैं ) काम विकारसे स्पर्श नहीं करना चाहिये ( वैद्य, पिता, पुत्र आदि जिस पवित्रभावसे स्पर्श करते हैं, कर सकते हैं ) इसीप्रकार हे जैन ! तुमने जिस पदार्थ को दान में देदिया उसकी ओर देखो मत ! उसका स्मरण मत कर ! और उसका स्पर्श भी मत करं। यही सज्जनों का लक्षण है ॥ २०४ ॥
दानादानविशुद्धवंशमखिलान दोषान्यथा ध्यायति । रूपं पश्यति साम्यमीक्षितुमिमां कन्यामनूढां जनः ॥ तद्नो लक्षणमुत्तम स्पृशति तामूढां सुतां न व्रती । - देवर्षिद्वयदत्तमर्थमखिलं नित्यं विधा वर्जयेत् ॥२०५॥ ___ अर्थ- जिस प्रकार कोई सज्जन अपनी पुत्रीका विवाह होनेके पहिले उसके योग्य वरको ढूंढता है और अपने पुत्रीके गुणदोषोंका