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दानशासनम्
विचार करता है, सामुद्रिक लक्षण आदिको देखता है, उन लक्षणों को देखने के लिए उसे स्पर्श करता है । परंतु वह व्रती विवाहित होनेके बाद उसे स्पर्श नहीं करता है। क्योंकि उसका दान दूसरोंको दे चुका है । इसी प्रकार देव व ऋषियोंको जो धन दानमें दिया जा चुका है उसका मन, वचन व कायसे परित्याग करें ॥ २०५ ॥
आक्रामत्यूढकन्यां यस्तं इंतारो न के पुरि ।
पौराः निदन्ति इतीशो दंडयंति नृपा यथा ॥ २०६ ॥
अर्थ -यदि किसी विवाहित कन्यापर किसीने आक्रमण किया तो पुरजन उसे मारे बिना नहीं छोड़ सकते । पुरजन उसकी निंदा करते हैं । जिस प्रकार राजा दंड देता है उसी प्रकार उस खीका पति भी दंड देता है । इसलिये दूसरोंको दिए हुए परद्रव्य पर भी आक्रमण 1 नहीं करना चाहिए | लोकमें उसकी निंदा होती है । पुरवासीजन उसे कोसते | राजा भी दंड देता है ॥ २०६ ॥
त्रीणि गंधपुष्पाणि सेव्यान्येव जिनाश्रितैः । जिनार्चिखिलार्थेषु नान्यवस्तूनि सर्वथा ॥ २०७ ॥
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अर्थ – जिन भक्तों को उचित है कि जिनेंद्रको अर्चन किए हुए द्रव्यों में से तीनही पदार्थ अर्थात् गंध, उदक व पुष्प सेवन करने योग्य है । अन्य पदार्थोको सेवन नहीं करना चाहिये ॥ २०७ ॥
स्वक्षेत्रफले हते न च नृणां धान्यादिलाभो यथा । सत्यंकारधने हृते न वणिजां लाभः स पात्रार्पितं ॥ आदने दविणेन पृण्यमतुलं सत्पुण्यभाजां नृणां । दत्ताहारमितापितामिव सुतां पात्रार्पितं न स्पृशेत् ॥ २०८ ॥ अर्थ - जिस प्रकार लोक में देखा जाता है कि अपने क्षेत्रमें बोये हुए बीजको यदि निकाल लिया तो उससे कोई धान्यादिक का लाभ